श्रीकृष्णकर्णामृतम् -श्रीमद् अनन्तदास बाबाजी महाराज
सुबोधनी सारंगरंगदा श्रील कविराज गोस्वामिपाद कहते हैं- श्रीपाद लीलाशुक ने श्रीकृष्ण की मुखशोभा और अपनी तृष्णा की क्षण-क्षण वर्धनशीलता पुनः अनुभव कर विस्मय के साथ यह श्लोक पढ़ा है। प्रवाह के जल की तरह श्रीकृष्णमाधुरी क्षण प्रतिक्षण ही नूतन है। यही श्रीकृष्णमाधुर्य का स्वभाव है। अनुरूप भाव से प्रेमिक भक्त की प्रेमतृष्णा भी श्रीकृष्णमाधुरी का निरन्तर आस्वादन करके भी सतत वर्धनशील है।
‘तृष्णाशान्ति नहे तृष्णा बाढ़े निरन्तर।’ यह तृष्णा ही वस्तु आस्वादन का परिमापक है। अमृत का सिन्धु सामने हो, तब भी तृष्णा के अभाव में कुछ भी आस्वादन नहीं होता। उसी प्रकार श्रीकृष्णमाधुर्य सिन्धु सामने रहने पर भी प्रेमतृष्णा के बिना उसका आस्वादन नहीं हो पाता। गोपियों के तृष्णामय अनुराग की प्रबलता इतनी अधिक है कि वे ही कह सकती हैं- “जनम अवधि हाम रूप नेहारिनु, नयन ना तिरपति भेलो। लाख लाख युग हिये हिये राखिनु, तबु हिया जुड़न ना गेलो।” जैसे अगस्त्य ऋषि ने गण्डुष (चुल्लू) में समुद्र भर लिया था, वैसे ही राधारानी अपनी अतुलनीय प्रेम तृष्णा के प्रभाव से समग्र कृष्णमाधुरी का ही आस्वादन करती हैं। श्रीकृष्ण की उक्ति है- “एइ प्रेमाद्वारे नित्य राधिका एकलि। आमार माधुर्यामृत आस्वादे सकलि।।”[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ चै. च.
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