श्रीकृष्णकर्णामृतम् -श्रीमद् अनन्तदास बाबाजी महाराज
भक्तों के आगे (उनके भाव; रस आदि के अनुरूप) विभिन्न भगवत्स्वरूप प्रकाशित होते हैं, उनके एकरूप और अनन्त रूपों में भेद भी नहीं है, फिर भी व्रजभक्तों के निकट अनन्त माधुर्यमूर्ति स्वयं श्रीकृष्ण ही प्रकाशित होते हैं। जहाँ प्रेम की पूर्णता है, वहाँ प्रकाश की भी पूर्णता है। इसलिए वे व्रजभक्तों के निकट कोटिप्राण निर्मञ्छित- चरण-नखचंद्रैक- चन्द्रिका हैं। व्रजवासी भक्तों के लिए श्रीकृष्ण की पगनख चंद्र चंद्रिका ऐसी है जिस पर करोड़ो प्राण न्योछावर हैं। श्रीकृष्ण अपने मुखचंद्र की शोभा से मेरी तृष्णाम्बुराशि अर्थात् तृष्णा- समुद्र को दुगुना कर रहे हैं। यह कृष्ण नामक वस्तु मुखइन्दु के उदय से चंद्रमा की पुनरुक्त शोभा को पुष्ट कर रही है। चंद्रमा के उदय होने से समुद्र उच्छलित होता है; उनका मुख चंद्रमा से भी अधिक उज्ज्वल है; उससे तृष्णासिन्धु के वर्धन में विचित्र बात कुछ भी नहीं।।84।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ चै. च.
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