श्रीकृष्णकर्णामृतम् -श्रीमद् अनन्तदास बाबाजी महाराज
श्रीकृष्ण के हृदय में श्रीराधा के साथ निर्जन विलास की वासना उदित हुई; पर सामने हैं शतकोटि गोपबालायें; वे प्रकट रूप से कुछ नहीं कह सके- और ऐसी स्थिति में प्रकट रूप से कुछ कहना भी रसिक के लिए ठीक नहीं। तभी चतुर-चूढ़ामणि ने चपल नयनों के कुटिल कटाक्ष से इंगित द्वारा श्रीमती को अपने मन का भाव बताया। उनके उस चातुर्यपूर्ण कटाक्षका अभिप्राय एकमात्र राधारानी ने समझा; अन्य कोई गोपी न समझ सकी। श्रीराधा और श्रीकृष्ण का रासस्थली से जो निष्क्रमण आदि हुआ, उसमें श्रीकृष्ण के चातुर्य की सीमा प्रकट हुई है। तभी कहा है- “चातुर्यैकनिदानसीम! चपलापांगच्छटामन्थरम्”- नेत्रान्त (आँखों की कोरों) आदि द्वारा राधारानी के आगे मन की इच्छा का जो ज्ञापन किया, वह ज्ञापन ही है एक चातुर्य जिनकी वे अवधि (सीमा) स्वरूप हैं। और जिनकी अपांगच्छटा (कटाक्षमाधुरी) से व्रजगोपियों की गति मन्थर हो जाती हैं, वे स्वयं राधारानी के कटाक्ष से समादृत हैं, तभी सादर संकेत ज्ञापन करना ही उनकी अभिलाषा है। उनकी यह अभिलाषा श्रीराधा उसे अंगीकार करें, यही ‘लक्ष्मीकटाक्षादृतम्’ शब्द का तात्पर्य है। अथवा श्रीकृष्ण की अभिलाषा कटाक्ष द्वारा ज्ञापित हो रही है, वह भी ‘लक्ष्मीकटाक्ष’ शब्द से अभिहित हो सकता है। इससे सादर संकेत ज्ञापन सूचित हुआ। अथवा ‘लक्ष्मीकटाक्षादृतम्’ शब्द का यह अर्थ भी संभव है- “प्रियः कान्ताः कान्तः परमपुरुषः” (ब्रह्मसंहिता) इत्यादि प्रमाण से लक्ष्मियाँ श्रीकृष्ण की कान्ता हैं, फिर “लक्ष्मीसहस्रशत सम्भ्रमसेव्यमानम्” (वही) इत्यादि वाक्य के अनुसार जो शतकोटि व्रजगोपियों द्वारा ससम्भ्रम (संकोच के साथ) सेव्यमान हैं, वे भी चपला श्रीराधा की अपांगच्छटा से अर्थात् चञ्चल नयनों के कुटिल कटाक्ष से एक बारगी स्तम्भित हो जाते हैं और उन लीलादि के सम्पादन में अशक्त होते हैं। “कामावतारांकुरं”- यहाँ ‘काम’ का अर्थ है ‘प्रेम’। तंत्रशास्त्र में देखा जाता है- “प्रेमैव गोपरामाणां काम इत्यागमत् प्रथाम्” गोपरामाओं का प्रेम ही ‘काम’ नाम से अभिहित है। मधुररसवती व्रजदेवियों का श्रीकृष्ण विषयक जो अति सुदुर्लभ प्रेम है, उसी का नाम ‘काम’ है। इसलिए “इत्युद्धवादयोऽप्येतं वाञ्छन्ति भगवत् प्रियाः” (भ.र.सि.) ‘उद्धवादि भगवत् प्रिय महाप्रेमिकगण भी इस काम की वाञ्छा करते हैं, किंतु इसे पा नहीं सकते।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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