श्रीकृष्णकर्णामृतम् -श्रीमद् अनन्तदास बाबाजी महाराज
श्रीलीलाशुक ने जो प्रार्थना श्रीकृष्ण के चरणों में ज्ञापित की है, श्रीकृष्ण तदनुरूप वासना-पूर्ति करते चल रहे हैं। भक्त ही उन्हें पाने के लिए कामना करता है, सो नहीं; भक्त की उत्कण्ठा भगवान् के चित्त में भी भक्त को पाने की, उसकी वासना पूरी करने की कामना जगा देती है। भक्ति भगवान् की एक ऐसी आनन्दिनीशक्ति की सारवृत्ति है कि वह भक्त-भगवान् दोनों को ही परस्पर के प्रति आसक्त कर देती है। भक्त के भगवान् ज्ञानी के ब्रह्म की तरह शक्ति के अभिव्यक्तिहीन परतत्त्व नहीं है; योगी के परमात्मा की तरह उदासीन भी नहीं हैं; वे भक्तवात्सल्य करुणा आदि समस्त कल्याणकारी गुणों की निधि (सागर) हैं। श्रील भट्ट गोस्वामिपाद कहते हैं- अब श्रीलीलाशुक दूर से श्रीकृष्ण को साक्षात् दर्शन करते देखकर इस श्लोक में उनका वर्णन कर रहे हैं। ‘दिव्यति क्रीडति द्योतते वा देवः श्री कृष्णः’ लीलापरायण और ज्योतिर्मय श्रीकृष्ण दूर से विशिष्ट दृष्टि से देख रहे हैं। कैसी दृष्टि? ‘राधाकटाक्षभरितेन’ श्रीराधा के कटाक्ष द्वारा पोषित। इससे एक साथ युगल का दर्शन ही व्यक्त हुआ है। अहो ! मेरा क्या सौभाग्य है? कैसे देव ? ‘वारणंकेलिगामी’ वारण अर्थात् हस्ती की तरह केलिपूर्वक गमन अर्थात् मन्थरगति। थोड़ी देर पश्चात् श्रीकृष्ण को निकट आते देख बोले- जो हृदयंगम अर्थात् मनोरम वेणुनाद है, उसकी वेणी अर्थात् प्रवाह- उस प्रवाह से युक्त जिनका श्रीमुख है। ‘आरात’ अर्थात् वे निकट आ रहे हैं। किस प्रकार? जिनके श्रीमुख पर दशनों की ज्योति शोभा पा रही है। इससे ईषद् हास्य व्यञ्जित हुआ। अथवा जिनका श्रीमुख दशन ज्योतियुक्त है। वे कैसे हैं? ‘वेणुनादं वेणयितुं वादयितुं शीलं यस्य सः’ अर्थात् मनोरम वेणुवादन करना ही जिनका स्वभाव है, वही श्रीकृष्ण।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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