श्रीकृष्णकर्णामृतम् -श्रीमद् अनन्तदास बाबाजी महाराज
सारंगरंगदा श्रील कविराज गोस्वामिपाद कहते हैं- पहले[2] श्रीलीलाशुक ने प्रार्थना की है-
‘वे कारुणिक किशोर अपने लीलायित, रसशीतल, नीलारुण, अद्भुत विभ्रमशाली नयनकमलों से मुझे कब देखेंगे?’ इस प्रार्थना के अनुरूप अपनी उत्कण्ठा की सफलता के कारण आनन्दपूर्वक श्रीलीलाशुक यह श्लोक में पढ़ रहे हैं। ये देव मुझे दूर से अवलोकन कर रहे हैं। कैसे? प्रवाहरूप जो कृपाकटाक्ष है, उसी कृपापूर्ण दृष्टि से। ‘राधा कटाक्षभरितेन’ इस पाठ का अर्थ होगा- श्रीराधा के कटाक्ष से पोषित दृष्टि द्वारा। वे कैसे हैं? ‘वारण केलिगामी’ हस्ती (हाथी) की तरह केलिगमनशील, अर्थात् जैसे हाथी मन्थर गति से विलासभंगिमा के साथ चलता है, वैसे ही मन्थरगति से मेरे निकट आ रहे हैं। फिर जिनका श्रीमुख मनोहर वेणुनादलहरी की वेणी या परंपरा से युक्त है ! वही श्रीमुख सहज स्मित (मुस्कान) की, प्रसरणशील (फैले) दाँतों की कान्ति से उदभासित है। अथवा श्रीमुख की शोभा दशनं की कान्ति से युक्त उपलक्षित है (दृष्टिगत हो रही हैं)। कैसे? उस वेणुनाद- कल्लोलयुक्त त्रिवेणीसंगम की तरह। दन्तों की शुभता है गंगा, नयनकटाक्षधारा की नीलिमा है यमुना, अधरों की कान्ति सरस्वती मानो इन तीनों के योग से त्रिवेणीसंगम की तरह शोभा परिलक्षित हो रही हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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