श्रीकृष्णकर्णामृतम् -श्रीमद् अनन्तदास बाबाजी महाराज
इस समय अन्याय व्रजबालायें भी श्रीकृष्ण के चारों और उपस्थित थीं, किंतु श्रीकृष्ण की दृष्टि और कहीं भी नहीं गई। “लावण्यामृतवीचिलोलि तदृशम्”, “श्री राधाया एव लावण्यामृत वीचिबिर्लोलिते सतृष्णीकृते दृशौ यस्य तम्।” श्रीकृष्ण के नेत्र श्रीराधा के लावण्यामृत-सागर की तरल तरंगों को लेकर अति तृषित हैं। वे विचलित हैं श्रीमती के लावण्यसुधारस के आस्वादन के लिए। वे अन्य किसी भी गोपी की ओर नहीं देख सके। सतृष्ण नेत्रों से तृषित चकोर की तरह श्रीराधा के मुखचंद्र की ओर देखते रहे। उनके मन में बड़ी साध है- श्रीमती को निर्जन निकुञ्ज में ले जाकर निभृत रसविलास में निमग्न होऊँ। श्रीराधा प्रेम का यही है अपूर्व वैशिष्ट्य। श्रीराधामाधुरी के आस्वादन के लिए ही हैं रास। शतकोटि गोपियों का समावेश उसी आस्वादन की वैचित्री सम्पादित करने के लिए है। “राधासह क्रीड़ारस वृद्धिर कारण। आर सब गोपीगण रसोपकरण।। कृष्णेर वल्लभा राधा कृष्ण-प्राणधन। ताँहा बिना सुख-हेतु नहे गोपीगण।।” (चै.च.) रास के प्रारम्भ में श्रीराधा के साथ निर्जन विलास की बात श्रीमद्भागवत में श्रीशुक देव मुनि ने कही है। गोदावरी तट पर श्रीरामानन्द राय ने श्रीमन्हाप्रभु के आगे श्रीराधाप्रेम की विशिष्टता प्रतिपादित करते हुए श्रीद्भागवत का रासलीला का ‘अनयाराधितोनूनं’ श्लोक पढ़ा, तो श्रीमन्महाप्रभु के हृदय में आनन्द सिन्धु उच्छलित हो उठा उन्होंने राय महाशय को निरपेक्ष राधा प्रेम की महिमा वर्णन करने का आदेश दिया-
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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