श्रीकृष्णकर्णामृतम् -श्रीमद् अनन्तदास बाबाजी महाराज
ये किशोरदेव श्रीकृष्ण श्रीराधा की कटाक्ष दृष्टि से समादृत हैं। “लक्ष्मीकटाक्षादृतम्” श्रीराधा परम अनुरागवती होकर भी परम लज्जाशीला और वाम्यभाव से भरी हैं। श्रीकृष्णदर्शन के लिए उनकी प्रबल उत्कण्ठा है, पर लज्जा और वाम्य भाव के कारण वे उनकी ओर देख नहीं सकतीं। वे श्रीकृष्ण के आगे अधोमुख किए रहती हैं, किन्तु मन मन में बड़ी साध है, एक बार श्रीकृष्ण का मुख देखूँ। ऐसा वे कर नहीं सकती, कारण लज्जा सम्भ्रम (भय-संकोच) और वाम्यभाव उनकी इस साध में आड़े हैं। इस अवस्था में वे सिर झुकाये कटाक्षभंगिमा से प्राणवल्लभ श्रीकृष्ण के दर्शन करती है। वह कटाक्षदृष्टि बड़ी मनोहर, बड़ी प्यारी है। नवकिशोर श्यामसुन्दर उस कटाक्षभंगिमा से समादृत हैं। साक्षात् श्रृंगार श्रीकृष्ण की सेवा का सर्वोत्तम उपचार है यह कटाक्षभंगिमा। श्रीराधा की वह दृष्टि हाव-भाव-हेला आदि श्रृंगारज भावों से परम रसमय है। “एइ भावयुक्त देखि राधास्यनयन। संगम हइते सुख पाय कोटिगुण।।”[1] श्रील भट्ट गोस्वामिपाद कहते हैं, यहाँ लक्ष्मी का अर्थ श्रीराधा ही है। मत्स्यपुराण में देखने में आता है- “रुक्मिणी द्वारवत्यान्तु राधा वृन्दावने वने”। श्रीगोपालतापनी श्रुति में भी देखते हैं- “तस्याद्या प्रकृतिः राधिका नित्या निर्गुणा यस्यां अंशे लक्ष्मी-दुर्गादिकाः शक्तयः” स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण की मूलशक्ति श्रीराधा आद्याप्रकृति हैं, नित्या, निर्गुणा हैं, लक्ष्मी-दुर्गा आदि सब उनके अंश हैं। वस्तुः श्रीकृष्ण जैसे तुरीयतत्त्व होकर भी सभी कारणों के कारण हैं, श्रीराधा भी वैसे ही पराशक्ति होकर भी सर्वकारणकारणरूपा हैं, इसलिए तापनी श्रुति ने उन्हें आद्याशक्ति के रूप में निरूपित किया है। गौतमीयतंत्र में श्रीराधा सर्वलक्ष्मीमयी और परमाशक्ति के रूप में वर्णित हुई हैं-
जो प्रेम में कृष्णमयी हैं; ऐश्वर्य में सर्वलक्ष्मीमयी, रस में सर्वकान्ति हैं, जो विश्वविमोहन श्रीकृष्ण को मोहने में सम्मोहिनी हैं, वे सर्वपूज्या पराशक्ति श्रीराधा ही लक्ष्मी हैं। उन महालक्ष्मीस्वरूपिणी श्रीराधा के कटाक्ष से ही श्रीकृष्ण समादृत हैं, अर्थात् श्रीराधा की दृष्टिमाधुरी द्वारा प्रगाढ़ आदर से आप्यायित (तृप्त, भरपूर) हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ चै.च.
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