श्रीकृष्णकर्णामृतम् -श्रीमद् अनन्तदास बाबाजी महाराज
फिर ‘सौरभ्यसीम’- श्रीकृष्ण अंग सौगन्ध की सीमा है। “नेत्र नाभि वदन, करयुग चरण, एइ अष्टपद्म कृष्ण-अंगे। कर्पूरलिप्त कमल, तार जैछे परिमल, सेइ गन्ध अष्टपद्म संगे।। हेमकीलित चन्दन, ताहा करि घर्षण, ताहे अगुरु कुंकुम कस्तुरी। कर्पूर सने चर्चा अंगे, पूर्व अंगेर गन्ध संगे, मिलि डाका जेन कैलो चुरि।।”[1] पद्मपुराण में श्रीकृष्ण की अंगगन्ध के वर्णन में देखते हैं-
श्रीमन्महादेव ने पार्वती देवी से कहा- ‘हे देवि ! श्रीकृष्ण के अंग सौरभ का अनन्त कोटि अंश भी विश्व को विमोहित करने में समर्थ है। उनके अंगस्पर्श मात्र से ही अद्भुत अनन्त सौरभ छिटकता है। पुष्प अगुरु कस्तूरी आदि सुगन्ध द्रव्यों की सुगन्ध की उत्पत्ति उनके स्पर्श से ही हुई है।’ फिर कहा- ‘सकलाद्भुतकेलिसीम’ समस्त अद्भुत केलियों (क्रीड़ाओं) के ये परावधि- स्वरूप हैं। मधुररस नायिकायें व्रजदेवियों के साथ श्रीकृष्ण का जो श्रृंगाररसमय विहार है, उसी का नाम है केलि। श्रील विल्वमंगल ठाकुर त्रिशतकोटि गोपियों के साथ श्रीकृष्ण की महारास क्रीड़ा दर्शन कर बोले- ये सभी अद्भुत केलियों के परावधिस्वरूप हैं। केलिविलास की चरमसीमा ही है रासलीला में। “राधिकादि लैया कैलो रासादि विलास। वाञ्छा भरि आस्वादिलो रसेर निर्यास। कैशोर वयस काम जगत सकल। रासादि लीलाय तिन करिलो सफल।।”[2] श्रीकष्ण की सारी ही व्रजलीला माधुर्यमय है, कारण- व्रज में व्रजपार्षदगण उनकी ऐश्वर्यलीला को भी माधुर्यस्वरूप में ही अनुभव करते हैं। किन्तु उनकी रासलीला एक ऐसा अद्भुत केलिविलास है कि इसकी स्मृति तक उन्हे आत्महारा करा देती है। “सन्ति यद्यपि में प्राज्या लीलास्तास्ता मनोहराः। न हि जाने स्मृते रासे मनो में कीदृशं भवेत्।” श्रीकृष्ण कह रहे हैं- मेरी बहुत प्रकार की मनोहारी लीलायें हैं, पर रास लीला की बात स्मरण कर मेरा मन कैसा हो जाता है, मैं स्वयं नहीं समझ पाता। फिर इस रासलीला की स्मृति रासनायिका व्रजबालाओं को भी विमोहित कर डालती है। सुदूर (अत्यधिक) विरह के दिनों में श्रीकृष्ण ने गोप-गोपियों की सान्त्वना के लिए अपने प्रिय भक्त उद्धव जी को व्रज भेजा, तो विरहिणी व्रजबालाओं ने उद्धव जी से रासलीला का प्रश्न कर कहा था- |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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