श्रीकृष्णकर्णामृतम् -श्रीमद् अनन्तदास बाबाजी महाराज
वस्तुतः यह उनका अति आश्चर्यजनक चपलताभरा नृत्यकौशल मात्र है। श्रील विश्वनाथ चक्रवर्तिपाद ने लिखा है- “मध्ये मणीनां हैमानां महामरकतो यथेत्यत्र मध्ये इति पदेन मरकत इत्येकवचनेन चात्र च श्लोके सता मिथो इत्यनुक्त्वा प्रविष्टेनेति पदेन च प्रयुक्तेन गोपीमण्डल-मध्यकार्णिकाभूत एवं कृष्णो मध्ये स्थितः सन्नेव तथागतिलाघवं प्रकटयामास यथा मण्डलस्थानां गोपीनामपि द्वयोर्द्वयोर्मध्ये प्रविष्टो नृत्यति स्मेत्येक परमाणु मात्र कालेनैव मध्यप्रदेशादागत्य मण्डलस्थास्त्रि शतकोटि गोपीः सनृत्यं परिरभ्य पुनर्मध्य प्रदेश गत एव वभूत्यालातचक्रादपि तस्य गतिलाघवमधिकमभूदिति ज्ञेयम्। यतो मण्डलकर्णिकागतत्त्वं मण्डलस्थ- प्रत्येक गोपी मध्यगतत्त्वं तस्य तदानीं सर्वैर्दृष्टम्।”[1] अर्थात्[2] श्लोक में कहा गया है- “मध्ये मणीनां हैमानां महामरकतो यथा” अर्थात् स्वर्णमणियों के बीच जैसे महामरकतमणि शोभा पाती है, वैसे ही गोपीमण्डली में श्रीकृष्ण शोभा को प्राप्त हुए। यहाँ ‘मध्ये’ इस पद के द्वारा और ‘मरकत’ इस पद में एकवचन के प्रयोग से एवं वर्तमान श्लोक में सता मिथः (परस्पर दो दो के बीच विराजमान) ऐसा न कहकर ‘प्रविष्टेन’ (दो के बीच प्रविष्ट होकर) ऐसा उल्लेख होने से प्रतीत होता है कि गोपीमण्डल की मध्य-कार्णिका रूप में विद्यमान रहकर भी क्षिप्रगति दिखाई। एक ही समय मण्डली के मध्यभाग में राधारानी के निकट और मण्डली में दो-दो गोपियों के बीच प्रविष्ट होकर नृत्यविलास किया। अर्थात् श्रीकृष्ण एक परमाणु मात्र समय में क्षिप्रगति से मण्डल का त्रिशतकोटि गोपियों को नृत्य के साथ आलिंगन कर पुनः मध्य स्थान में जा पहुँचते हैं। इससे आलातचक्र से भी अधिक गति लाघव (फुर्ती) सूचित होता है। सभी गोपियों ने एक श्रीकृष्ण को ही मण्डली के मध्य और अपने-अपने पार्श्व में देखा था। उधर देखने में आता है-
‘आत्माराम होकर भी श्रीकृष्ण ने उस रासमण्डल में जितनी गोपरमणियाँ थी, लीला के लिए उतने ही रूप प्रकाशित कर उनमें से प्रत्येक के साथ विहार किया था।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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