सुबोधनी
ततस्तस्य तत्तच्चापाल्यादिकमनुभूय तत्तदवधित्वेन साश्चर्यमाह- तदिदं मम जीवितं चापल्यानां सीमवधिर्यत्र। तत्कुतः- चपलानां गोपालंगनानां यस्ततस्पर्शादिसुखानुभवस्तस्यैका मुख्या सीमा यत्र। ताभिरेव तदनुभवितुं शक्यमित्यर्थः। तदेकवेद्यत्वमपि कुतः- चातुर्यैकसीम। तदपि कुतः- विधेः शिल्पस्य सीमा यत्र। इदमालोक्य तस्य शिल्पित्वं गतमित्यर्थः। तत् सौरभ्यं लब्धबा- सौरभ्यसीम। तत्केलिपरिपाटीर्दृष्ट्वाह- सकलाद्भुतकेलिसीम। क्षणं विमृश्याह- व्रजदेवीनां सौभाग्यसीम। न केवलं तसाम्- व्रजस्यैव भाग्यसीम।।74।।
सारंगरंगदा
रासे तस्य तत्श्चापल्यादिकमनुभूय साश्चर्यमाह। प्रथमं नृत्यगतिलाघवं दृष्ट्वाह- तदिदं मम जीवितं चापल्यसीम। तेषां सीमा यत्र तदवधिभूतमित्यर्थः। तादृशगोपीभिश्चुम्बिता-लिंगितं तं विलोक्याह- सहनृत्यचुम्बनाद्यर्थं चपलानामासां यस्तत्स्पर्शादिसुखानुभव- स्तस्यैका प्रधाना सीमा यत्र। तादृशीभिस्ता-भिरेवानुभवितुं शक्यमित्यर्थः। तत्च्चातुर्य दृष्ट्वाह- चातुर्येति। सौन्दर्यं दृष्टवाह- चतुराननेति। चतुराननस्य विधेः शिल्पस्य सीमा यत्र। सौरभ्यं लब्धवाह- सौरभ्येति। तत्केलिसौष्ठवं दृष्ट्वाह- सकलेति। व्रजदेवीनां प्रेमावेशं सौन्दर्यादिकञ्च दृष्ट्वाह- सौभाग्येति। क्षणं विमृश्य, न केवलमासां व्रजस्यापि भाग्यसीमा यत्र।।74।।
‘आस्वादबिन्दु’ टीका
रासनृत्य आरम्भ हो गया है। “मण्डलीबन्धे गोपीगण करेन नर्तन। मध्ये राधा सह नाचे व्रजेन्द्रनन्दन।।”[1] त्रिशतकोटि गोपियों में सभी की प्रबल इच्छा की हुई श्रीकृष्ण को अपने निकट आलिंगित अवस्था में प्राप्त करूँ। उनकी उस इच्छा मात्र से महायोगेश्वर अर्थात् अचिन्त्य- शक्तिशाली श्रीकृष्ण के एक ही विग्रह में ऐसी नृत्यचपलता प्रकाशित हुई है कि वे नृत्यकौशल की क्षिप्रता से आलातचक्र की तरह एक ही समय श्रीराधा के निकट आगमन और प्रत्येक के पास गमन करने लगे। इससे लगने लगा कि वे बहुत सी मूर्तियों में उपस्थित होकर सबके बीच रहकर नृत्य कर रहे हैं। किन्तु प्रकृत पक्ष में यह उनका नृत्यकौशल मात्र था, अनेक मूर्तियों का प्रकाश नहीं। आचार्यपादगण की व्याख्याओं से यही पता चलता है। श्रीमज्जीव गोस्वामिपाद ने अपनी वृहत् क्रमसंदर्भ टीका में लिखा है- “एक एव सर्वनिकटस्थो न तु नानात्वेन अतएव स्वनिकटस्थं मन्येरन। नतु नानात्वं वास्तवः। योगेश्वरमात्र स्यैव कायव्यूहकरण सामर्थ्यं तद्कृत्वा एक एव व्यापकत्वेन स्फुरित तदेवाचिन्त्य परमैश्वर्यमिति” तात्पर्य यह है कि ‘रासनृत्यकाल में श्रीकृष्ण एक साथ सभी गोपियों के निकट उपस्थित थे, यह उनके बहुरूप का प्राकट्य नहीं था। वे सब एक ही कृष्ण को अपने-अपने पास अनुभव करने लगीं। यह वास्तव में उनका नानात्व नहीं, प्रतीतिमात्र था। सभी योगेश्वर अपना कायव्यूह प्रकट करने में समक्ष हैं, किन्तु भगवान् योगेश्वर मात्र ही नहीं, विभु या व्यापक तत्त्व हैं। तभी एक ही देह से सर्वत्र स्थिति हैं; यही उनका अचिन्त्य परमैश्वर्य है।’
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