गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-1 : अध्याय 1-4
प्रवचन : 6
भगवान ने यज्ञ का यह विज्ञान तीसरे अध्याय में निरूपित किया। इसमें भी स्थिति-भेद से कर्ताओं के दो विभाग कर दिये। एक कर्तव्य-बोध से मुक्त होकर कर्म करने वाले और दूसरे कर्तव्य के बन्धन में रहकर कर्म करने वाले। जब तक अज्ञान है तब-तक बन्धन अथवा मर्यादा को स्वीकार करना पड़ेगा- एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह य: । इसमें ‘एवं प्रवर्तितं चक्रं’ का तात्पर्य है कि यज्ञ का चक्र चल रहा है। जैसे रथ के चक्र (पहिये) में अरे लगते हैं, वैसे ही हमारे जीवन के रथ को चलाने के लिए छह अरे हैं। जो इनका अनुवर्तन नहीं करता वह अघायु होता है-अघायुरिन्द्रियारामो मोघम्। यदि हम यज्ञ का परित्याग कर दें, पृथ्वी के समान सबको धारण न करें, जल के समान सबको तृप्ति न दे, सूर्य-चन्द्रमा के समान सबको प्रकाश और आल्हाद न दें, वायु के समान सबको प्राण न दें, आकाश के समान सबको अवकाश न दें; तात्पर्य यह कि यदि हमारा पान्चभौतिक जीवन, पंचभूत की प्रकृति के अनुसार न हो तो हम अघायु हो जायँगे, पाप करने लग जायँगे। ‘अघ’ शब्द का संस्कृत भाषा में अर्थ है कि जिसका फल अवश्य भोगना पड़े- न हन्यते भोगं विना इति अघः। पाप और पुण्य में- से पुण्य का फल बिना भोगे भी चल सकता है। यदि आप अच्छा काम करें और सरकार आपको पुरस्कार दे तो आप अस्वीकार कर सकते हैं। कह सकते हैं कि इस पुरस्कार को देश के किसी अच्छे और आवश्यक काम में लगा दिया जाये। परन्तु यदि आप कोई ग़लत काम करें, आपको जुर्माना हो, सज़ा हो और कहें कि इसको हम नहीं भोगना चाहते तो उससे छुट्टी नहीं मिलेगी। ‘अघ’शब्द का अर्थ ही यह है कि आप इसको भोगने से अस्वीकार नहीं कर सकते। अगर आप बुरा काम करेंगे तो उसका फल आपको भोगना ही पड़ेगा। अच्छा; अब आप देखिये आपका जीवन कैसा व्यतीत हो रहा है? मनुष्य के जीवन में अनजाने ही हिंसा का प्रवेश होता है। मैंने एक दिन सुनाया था कि भूल या बुराई सिखायी नहीं जाती वह अपने आप आ जाती है। जन्म-जन्म की भूल हमारी ज्ञान-रश्मियों को प्रकट होने में बाधा डाल रही है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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