गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-4 : अध्याय 7
प्रवचन : 9
परमात्मा हमेशा यज्ञ करता रहता है। वह स्वयं यज्ञरूप है। जैसे चन्द्रमा यज्ञ कर रहा है-सबको आल्हाद दे रहा है। हम एक दूसरे को कुछ-न-कुछ दें। दूसरे को समझें कि जो मेरे अन्दर है वही इसके अन्दर है और किसी हिंसा न करें। किसी को दुःख न पहुँचावें। हम लोगों का फिर मिलन हो, एक दूसरे को पहचानें, एक दूसरे को कुछ दें। एक दूसरे को नुकसान न पहुँचावें। हम लोगों का फिर मिलन हो, एक दूसरे को पहचानें, एक दूसरे को कुछ दें एक दूसरे को नुकसान न पहुँचावें। क्योंकि यह यज्ञ-स्वरूप जो परमात्मा है-वह सब जगह बैठकर कुछ-न-कुछ, कुछ-न-कुछ यज्ञ कर रहा है। दे रहा है। सर्वभूतेषु मद्भावं ब्रह्म-अध्यात्म, कर्म, भूत, अधिदैव और अधियज्ञ-ये सबके रूप में कौन है? परमेश्वर-इस परमेश्वर को जान लो, तब- अन्न्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते। आठवें अध्याय का- अनन्यचेता: सततं यो मां स्मरति नित्यश: । आपका चित्त अनन्य हो जायगा। अब आप भगवान के प्रति अनन्य हो जायेंगे। जो आपके सम्मुख आता है, जो दीखता है, उसमें भगवान के बारे में श्रवण करेंगे। यह हमारी जो श्रुति है-कान है-श्रवण है-श्रवण ही हमारे मन को मार्ग दिखाता है। हमारे हृदय में परिवर्तन करता है। आप लोगों ने बड़े प्रेम से, बड़ी शान्ति से, बड़ी लगन से श्रवण किया और हमको बोलने का मौका दिया। आपकी बात तो आप जानें, हमको सचमुच भगवदस्वरूप, भगवत्त्व, भगवदरहस्य, भगवच्चरित-भगवदगुणानुवाद और भगवदवाणी-इनके बोलने में जो आनन्द प्राप्त होता है, उसके कारण मैं बोलता हूँ-वह आनन्द ही हमसे बुलवाता है। यदि वह आनन्द नहीं हो तो हम बोल नहीं सकते। इस आनन्द के निमित्त आप लोग बनते हैं। भगवान आप लोगों को इस बोलने का निमित्त बनाता है। आपके भीतरव वही प्रभु बैठा हुआ है, जो यहाँ बैठकर बोलने की शक्ति देता है और वहाँ बैठकर बोलने की प्रेरणा देता है। वे दोनों दो नहीं हैं, बिलकुल एक हैं। इसलिए न तो कोई कृतज्ञता है, न तो कोई आभार है, न कोई धन्यवाद है-सब जो भगवान कर रहे हैं उसमें आनन्द ही आनन्द है। ऊँ शान्तिः शान्तिः शान्तिः |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्लोक 8.14
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