गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-4 : अध्याय 7
प्रवचन : 1
अतः जिस समय हमारे मन में यह भाव उत्पन्न होता है कि यह हमारा दुश्मन है या जिस समय यह भाव उत्पन्न होता है कि यह दोस्त है, उस समय क्रोध उदय होता है या राग का उदय होता है। उस समय हमारा ‘मैं’ उस क्रोध के साथ या राग के साथ मिल जाता है। हम अपने को द्वेषारूढ़, रागारूढ़, कर लेते हैं। फलतः हम द्वेष के साथ चिपक गये अथवा राग के साथ चिपक गये। थोड़ी देर बाद जब राग, द्वेष ढीला पड़ता है ओर हम अपने को उससे अलग कर लेते हैं, तब हमें अपनी गलती मालूम पड़ती है। हमें मालूम पड़ता है कि हमारे राग में जो पक्षपात था, वह हमारी बेहोशी थी तथा द्वेष मे हमारे मन में जो जलन थी, वह हमारी बेहोशी थी। तब जो भाव हृदय में आता है उसको योग की भाषा में ‘वृत्ति-सारूप्य’ बोलते हैं। क्रोध वृत्ति का उदय हुआ, काम वृत्ति का उदय हुआ या लोभवृत्ति का उदय हुआ और हमने अपने आपको उसमें मिला दिया। हम क्रोधी हो गये, कामी हो गये, लोभी हो गये। तो भगवान कहते हैं कि तुम काम में, क्रोध में अथवा लोभ में अपने को मत मिलाओ। तब कहाँ मिलाओ? मेरे साथ मिला दो। मुझसे तुम एक हो जाओ। जिस दृष्टि से मैं सारी सृष्टि को देखता हूँ उसी दृष्टि से तुम भी सारी सृष्टि को देखो। एक सज्जन के सामने जब कोई समस्या आती है तो वे ऐसे सोचते हैं कि हमारे पिता जी के सामने ऐसी समस्या आती तो वे क्या निर्णय करते? ऐसे ही एक साधु हैं। उनके सामने जब कोई सामस्य आती है तो वे सोचते हैं कि इस समय हमारे गुरुजी क्या निर्णय करते? जब एक जीवात्मा के सामने कोई समस्या आती है और वह यह सोचने लगता है कि इस समस्या पर परमात्मा की दृष्टि क्या होगी, तब आप देखिये- आपकी दृष्टि में रागद्वेष नहीं होगा तथा समत्व आजायेगा। समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः।[1] भगवान तो किसी से रागद्वेष नहीं करते, इस लिए परमात्मा की नजर से नजर मिला दो। परमात्मा के ज्ञान से अपना ज्ञान मिला देना, परमात्मा के प्रेम से अपना प्रेम मिला देना, यह पार्टीबन्दी की बात नहीं है। परमात्मा तो सबके साथ अपने आपको मिलाकर रखता है- नामरूपे व्याकरवाणी- उसने अपने को विशिष्ट आकृति प्रदान की कि जिससे सारे नाम और रूप प्रकट कर दिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 9.29
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