गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-1 : अध्याय 1-4
प्रवचन : 2
दूसरी बात यह है कि संसार की सब वस्तुएँ अदलती-बदलती रहती हैं किन्तु आत्मा में कोई परिवर्तन नहीं होता। आत्मा कभी मरता नहीं और संसार कभी रहने वाला नहीं- यह तो हुई आत्मा की बात। अब जो यह बुद्धि डाँवाडोल हो जाती है, टिकती नहीं, यह प्रश्न मनुष्य के जीवन में अवश्य आता है। भगवान श्रीकृष्ण इसकी भी युक्ति बताते हैं कि हमारी बुद्धि किस प्रकार स्थिर हो? इसके लिए भगवान ने बहुत-सी युक्तियाँ बतायी हैं- प्रजहाति यदा कामान्[3] यः सर्वत्रानभिस्नेहः[4] दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः[5]-एक तो हम कामना के वश में न हों। हम राम की प्रेरणा से चल रहे हैं कि काम की प्रेरणा से? राम की प्रेरणा माने वासना-विनिर्मुक्त प्रेरणा। और नाभिनन्दति न द्वेष्टि[6] हम अभिनन्दन करने अथवा द्वेष करने में लग जायेंगे तो हमारी बुद्धि डाँवाडोल, पक्षपाती, पार्टीबन्दी वाली हो जायेगी। पार्टी का सबसे बड़ा अभिशाप है कि वह स्वयं को दूध का धुला, बिलकुल स्वच्छ, शुद्ध मानती है और दूसरी पार्टी चाहे कितनी भी बढ़िया हो उसे बुरा मानती है। दूसरी पार्टी का अच्छा भी बुरा और हमारी पार्टी का बुरा भी अच्छा है। इसमें लगता है पाप, अपराध और इस अपराध के कारण बाद में पार्टियाँ भ्रष्ट हो जाती हैं, टूट जाती हैं। तो अभिनन्दन और द्वेष से, राग और द्वेष से बचना चाहिए। उसके बाद आता है- दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः।[7] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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