गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-13 : अध्याय 16
प्रवचन : 5
जब जीव इन को छोड़ देता है, माने मन-ही-मन इनका अपवाद कर देता है, अपने स्वरूप में इनको नहीं देखता है, वह जो मन, वाणी और चक्षुसे मुक्त-माने ज्ञानेन्द्रिय, कर्मेन्द्रिय और अन्तःकरण से विनिर्मुक्त जो आत्मा है वही परमात्मा है। यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम। यदि उसका ज्ञान हो जाय, वहाँ तक पहुँच जायँ। हम पहुँचते वहीं तक हैं जहाँ तक इन्द्रियाँ जाती है या मन जाता है या हम कान से लोगों की आवाज सुनते हैं। वहाँ पहुँच जाओ, जो अपना सच्चा स्वरूप है। उसके अज्ञान के कारण ही हम संसार में फँसे हुए हैं। भगवान कहीं हम से दूर नहीं है। जहाँ हम हैं वही भगवान हैं। और सच पूछो तो जो हम हैं वही भगवान हैं, जो भगवान हैं वही हम हैं। श्रीरामानुजाचार्यजी से किसी ने पूछा, भगवान कैसे हैं? तो बोले कि जैसे जाहिर होते हैं। कैसे जाहिर होते हैं? बोले-जैसे हैं। उनमें और उनकी अभिव्यक्ति में किसी भी प्रकार का अन्तर नही है। सबसे निकट अगर हमारे कोई है तो वह भगवान है। दुनिया दूर-दूर है, आती है, जाती है, दिखती हैं। एक बार परमेश्वर को देख लो, वह तुम्हारे सुहृद हैं- सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति। वह तुम्हारा कल्याण कर रहे हैं। तुम्हारा मंगल कर रहे हैं। एक बार अपने मन को तौलकर देखो, कि आप भगवान को अपने अनुकूल बनाना चाहते हो कि स्वयं भगवान के अनुकूल बनना चाहते हो। जो तुम कहो सोई भगवान करे, जो तुम चाहो सोई भगवान करे। तुम भगवान को अपना सेवक बनाना चाहते हो कि भगवान जो करता है उसमें अपनी हाँ मिलाना चाहते हो? ऐसा कैसे है कि यह जीव ऐसी जगह पर पहुँच जाता है जहाँ से लौटना नहीं होता। ‘अब की गौना बहुरि नहि औना।’ आओ चलें उसी देश में, जहाँ से फिर लौटना नहीं होता। वह देश कहाँ है? अगर दूसरा होगा तो वहाँ से लौटना जरूर होगा। इसलिए भगवान का स्वरूप बताने लग गये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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