गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-13 : अध्याय 16
प्रवचन : 3
यह जो मनुष्य का शरीर है, संसार सागर से पार जाने के लिए बेड़ा मिला है। यही नाव है, यही जहाज है, इतने ऊपर आ गये हैं कि अब आप अपने मन से बुद्धि से परमात्मा का स्पर्श कर सकते हैं और स्वयं उससे मिल सकते हैं। और बाकी तो देखो साधना करते हैं तो कोई साधना करते हैं वाणी की। वैखरी वाणी जिह्वा में है, मध्मया वाणी है फिर पश्यन्ती है, फिर परा है और परा वाणी में जाकर चेतन से मिल जाते हैं, एक हो जाते हैं। और कोई-कोई साधना करते हैं कि मूलाधार, स्वाधिष्ठान से ऊपर उठते-उठते सहस्रार और उसके ऊपर जो चक्र है उनमें जाकर परमात्मा से मिल जाते हैं। तो परमात्मा ऊपर हैं कि नीचे हैं? किसी ने कहा नहीं-नहीं हृदय में ही मिलते हैं। ठीक है। किसी ने कहा नाभिचक्र में मिलते हैं, वह भी ठीक हैं। परमात्मा तो सब जगह है। जहाँ आपकी निष्ठा हो जायेगी , वहाँ परमात्मा की प्राप्ति हो जावेगी। चाहे ऊपर और चाहे नीचे। अब आप मनुष्य-शरीर में आकर के यदि ऐसे कर्म करते हैं कि आपके सिर पर हमेशा बोझ बना रहे, तो जिस पर बोझ रहेगा वह नीचे जावेगा और जो निर्भार हो जायेगा वह ऊपर जायेगा। इसलिए भक्ति भी गोस्वामी तुलसीदासजी माँगते हैं - भक्ति प्रयच्छ रघुपुंगव निर्भरां, निर्भरभक्ति-निर्भारभक्ति हमारे ऊपर कोई बोझ नहीं रहे। भगवान पर तो कोई बोझ होता नहीं और जीव ने अपना बोझ छोड़ दिया। यह निर्भारता जो है, यह भर और भार शब्द संस्कृत में एक ही है। निर्भार भक्ति चाहिए - कोई अपनी जिम्मेवारी नहीं। छोटा बच्चा है, माँ की गोद में है, वह सुलाती है, खिलाती है, पिलाती है ऐसी निर्भरता भगवान के प्रति होनी चाहिए। इससे ज्ञान और भक्ति में अन्तर नहीं पड़ता है। ज्ञानी लोग कहते हैं प्रारब्ध पर छोड़ दिया, प्रकृति पर छोड़ दिया। प्रारब्ध का संचालक भी परमात्मा ही है और प्रकृति का संचालक भी परमात्मा ही है और भक्त ने सीधे कह दिया भगवान पर छोड़ दिया। बात एक ही है कि बोझ अपने ऊपर कोई नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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