गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-11 : अध्याय 14
प्रवचन : 8
केपोनिषद् में भी यही वचन है। उपनिषद् भी कहते हैं कि हम ऋषियों पर, धीर पुरुषों पर, जीवन्मुक्तों पर श्रद्धा करते हैं। भगवान श्रद्धा करते हैं, उपनिषद् भी, वेद भी महात्माओं पर श्रद्धा करते हैं। इसलिए श्रद्धा की सम्पदा को सर्वथा परोक्ष पर नहीं डालना चाहिए। प्रत्यक्ष में जो महत्त्व-बुद्धि है, उसके आधार पर श्रद्धा सम्पदा को सर्वथा परोक्ष पर नहीं डालना चाहिए। प्रत्यक्ष में जो महत्त्व-बुद्धि है, उसके आधार पर श्रद्धा होनी चाहिए। भगवान ने इस परम्परा को बहुत बल दिया है। प्रश्न: भूतों के पृथक् भाव को एकस्थ देखकर उसी से सब भूतों के विस्तार को देखने का अभिप्राय क्या है? ऐसा करने में समर्थ को ब्रह्म की प्राप्ति क्यों हो जाती है? उत्तर: पहले बताया कि सम्पूर्ण भूतों में सम रूप से परमात्मा स्थित है। समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम्। सम्पूर्ण पदार्थों में भूत का अर्थ होता है-‘भवन्ति’ जो भी कार्य के रूप में पैदा होते हैं, उनका नाम होता है भूत। जो सबमें समरूप से परमात्मा को देखता है, वह तो ठीक देखता है- यः पश्यति स पश्यति। भगवान कहते हैं कि और लोग देखते ही नहीं है। सब अन्धे हैं। जो सबमें स्थिति परमेश्वर को नहीं देखते वे सब अन्धे हैं। और फिर बताया कि जब सबमें परमेश्वर को समरूप से देखने लगते हैं, तो जो सबमें है वह अपने में भी है। यह बात कभी-कभी भक्त लोगों के ध्यान में नहीं आती है कि हमको तो भगवान कहते हैं कि चराचर में भगवान हैं। माने हमारी दृष्टि से तुम भगवान हो। इसका अर्थ यह है कि मैं तो सेवक हूँ-‘मैं सेवक सचराचर रूपराशि भगवन्त’ मैं सेवक हूँ और चराचर भगवान का स्वरूप है। लेकिन जब दूसरा देखेगा- हम सैकड़ों लोगों में भगवान का स्वरूप देख रहे हैं। परन्तु ये सैकड़ों लोग हमको क्या देख रहे हैं? यह भी तो सोचो! हमारी दृष्टि में तुम भगवान हो, तो तुम्हारी दृष्टि में हम भी तो भगवान हो गये न! |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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