गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-11 : अध्याय 14
प्रवचन : 4
हमारे शरीर में क्लेश क्या है? वह क्लेश कब बढ़ता है और कब घटता है? इसका एकान्त में ही चिन्तन करना चाहिए। कि क्या खाने से हमारे शरीर का रोग बढ़ता है और क्या खाने से घटता है? अपने आप एकान्त में इसक चिन्तन कर लेना चाहिए। और अपने आपको जितना मालूम पड़ता है उतना दूसरे को नहीं मालूम पड़ता है। पहले हमारे वैद्यों की रीति थी कि एक, दो, चार रोगियों को लिया और वे प्रातःकाल बैठकर उनके बारे में सोचते थे। इसके रोग का कारण क्या है? इसका निवारण क्या है? इसके लिए औषध क्या ठीक रहेगी? और उनकी औषध, उनके संकल्प से शक्तिशाली हो जाती थी। आज डॉक्टर दिन भर में 100-200 मरीजों को देखता है। किसी के बारे में कुछ नहीं सोचता है। उसका जो किताबी ज्ञान है-देखा और झट निश्चय किया और दवा बता दी। अभी हमारे नाक में बलगम रूक गया था तो डॉक्टर ने फट आधी गोली खिला दी तो बलगम तो निकल गया होगा-हमको याद नहीं है लेकिन हमारी दोनों आँख ऐसी सूज गयी जैसी जीवन में कभी नहीं सूजी। अब उसने यह नहीं चिन्तन किया कि यह दवा देने पर इनकी आँख सूजेगी। यह साइड इफेक्ट हर काम का पहले एकान्त में बैठकर सोच लेना चाहिए। और उसके समझने की रीति, नीति युक्ति अपने को आनी चाहिए। यह बात बिना एकान्त-चिन्तन के तो नहीं हो सकती। अब हमारे मन में किसके लिए राग है। कहाँ फँस रहे हैं? फँसते जा रहे हैं। देखने में क्या हानि है, देख लेंगे। बात करने में क्या हानि है? कर लेंगे। छूने में क्या हानि है? छू लेंगे। भोगने में क्या हानि है, बस बात कट गयी। इसी प्रकार हमारे हृदय में किसी से दुश्मनी तो नहीं बढ़ रही है? यह अपने मन की स्थिति को एकान्त में बैठकर चिन्तन करना चाहिए। इसके लिए संन्यासी होने की कोई जरूरत नहीं है। इसको आप घर-गृहस्थी में रहकर खूब मजे से सोचिये। आप अपने धर्म को घर में ले आइये। परिवार में, बाजार में, दुकान में, ऑफिस में। अपने धर्म को अपनी आँखों से देखते रहिये। आप अपने ईश्वर को जन-जन ले आइये। सब जगह देखिये। आप अपने ज्ञान को निरन्तर साथ रखिये। ज्ञान को आले में मत रखिये। इसके लिए संन्यासी होने की कोई जरूरत नहीं है। यह तो हम लोग एक सुविधा के लिए संन्यासी बनते हैं। और वह संन्यासी कपड़ा पहनने से लोग समझते हैं कि इसका भरण-पोषण करने की जिम्मेदारी हम लोगों की है, इनकी नहीं है। तो लोग रोटी लाकर दे देते हैं। लेकिन यह साधु बीच में खड़ा है। यह धनी से कहता है देखे-हम बिना धन के सुखी है। क्यों लालच बढ़ाता है? क्यों धन के लिए दूसरों को सताता है। यह गरीब से कहता है- देख मैं तुझसे भी ज्यादा गरीब हूँ और मैं सुखी हूँ। एक गरीब भी सुखी रह सकता है। और धनी जो समझता है कि हम केवल धन से ही सुखी हैं, उसकी वह गलत मान्यता भी मिट सकती है। सुख जीवन की एक अमूल्य सम्पत्ति है। अपना जीवन है। इसको जाहिर करने के लिए साधु गरीब और अमीर दोनों के बीच में खड़ा होकर एक समन्वय स्थापित कर रहा है। और जिस दिन वह नहीं रहेगा, उस दिन दोनों आपस में लड़ मरेंगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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