गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-10 : अध्याय 13
प्रवचन : 8
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थं अहं स च मम प्रियः। अत्यर्थ प्रियः। ‘अर्थम् अतिक्रान्तः’ है। हमारे और हमारे भक्त के बीच में कोई अर्थ नहीं है। बीच में धन रख लिया, अब ग्राहक करता है दुकानदार से प्रेम और दुकानदार करता है ग्राहक से प्रेम। दोनों के प्रेम के बीच में अर्थ है। दुकानदार और ग्राहक को जो परस्पर प्रेम है वह बीच में अर्थ को रखकर है और भगवान और ज्ञानी का जो प्रेम है वह अत्यर्थ है, अर्थ का अतिक्रमण करके है। ‘अहं स च मम प्रियः।’ मेरे और ज्ञानी भक्त के बीच में कोई धनदौलत का, कुछ लेने-देने का सवाल नहीं है। वैसे ही ज्ञानी-भक्त का यह लक्षण है। क्योंकि वहाँ ज्ञानी-भक्त प्रिय है-यह बात बतायी और ज्ञानी का प्रिय मैं हूँ यह बताया। वही यहाँ लक्षणों में है-‘यो मद्भक्तः स मे प्रियः।’ जो मेरा भक्त है, वह मेरा प्रिय है। माने भगवान ने अपनी प्रियता को विविक्त कर दिया। सबने प्रेम करते हैं परन्तु सबसे साधारण प्रेम है और भक्त का जो प्रेम है वह विशेष प्रेम है। यह बात गीता में जहाँ-जहाँ ऐसा प्रसंग आया है-बिलकुल स्पष्ट कही है। समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः। मैं सबके प्रति सम हूँ। मैं किसी से द्वेष भी नहीं करता और किसी के प्रति मेरी आसक्ति भी नहीं है। परन्तु जो भक्ति के साथ मेरा भजन करते हैं, ‘मयि ते तेषु चाप्यहम्’-मैं और वे एक हो जाते हैं। मुझमें वे, उनमें मैं। अब यहाँ ‘यो मद्भक्तः स मे प्रियः’ यह इसका सम है। यह नहीं कहते हैं-सब मेरे प्यारे हैं। यह परस्पर प्रेम है। एकांगी प्रेम नहीं है। भगवान भी प्रेम करते हैं। खास करके हमारे भगवान अपने भक्त के लिए रोते भी हैं। ऐसा भागवत में वर्णन है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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