गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-10 : अध्याय 13
प्रवचन : 5
यदि फल के बल से हम साधन के स्वरूप पर विचार करें तो ऐसे सोचना पड़ेगा कि हमारा मन हो संकल्प करता है वह कैसा है? आगे यह हो जाय, यह हो जाय, -मनोराज्य है। कहाँ जाने का संकल्प होता है? आप अपनी कल्पना शक्ति को देखिये- सदा सदानन्दपदे निमग्नं मनोभावोऽपाकरोति। सदा सदानन्द पद में मन डूबा रहे, फिर मन मन नहीं रहता, वह तो परमात्मा से एक हो जाता है। ‘गतागतायाः समपास्य सद्यः’। उसको स्वर्ग में, नरक में, पुनर्जन्म में जो जाने-आने की मेहनत हैं, श्रम है, परिश्रम है, वह सब तुरन्त छूट जाता है। पर और अपर दोनों से जो विलक्षण तत्त्व है वह यहीं मिल जाता है। यह बहुत ही प्रत्यक्ष मार्ग है। प्रत्यक्ष को ही एकमात्र चार्वाक जैसे प्रमाण मानता है, मानस-प्रत्यक्ष को भक्त लोग प्रमाण मानते हैं। साक्षी-प्रत्यक्ष को योगी लोग प्रमाण मानते हैं; हमारे अनुमान की कोई जरुरत ही नहीं है। यह होगा, यह होगा, यह होना- देखो भाई! इसी समय परमानन्द लहरा रहा है। फल-बल-कल्प्य के जो साधन हैं उसका स्वरूप यह होगा कि हमें भगवान में ही सर्वदा निवास करना है, इसलिए हम अपने बड़े-बड़े मनोराज्य को छोड़कर तुरन्त संवित् साम्राज्य में चैतन्य लोक में प्रतिष्ठित हो जायँ। हमको जो चेतन-स्वरूप देख रहा है, जो अन्तर्यामी सबको प्रदर्शित कर रहा है। एक रहस्य की बात आपको सुनाते हैं- पुराने युग में परमात्मा के लिए आत्मा शब्द का ही प्रयोग होता था। वेदों में, ब्राह्मणों में, उपनिषदों में परमात्मा ढूँढ़ने पर कहीं-कहीं मिले तो मिले, परमात्मा का ही नाम पहले आत्मा बोल जाता था। जैसे पहले घी को घी ही बोला जाता था फिर नकली घी चलने लगा तब असली घी, शुद्ध घी, उसका विशेषण लगाना पड़ा। आत्मा के साथ परम शब्द तब जोड़ना पड़ा जब लोगों ने अपन को-माने देह को और प्राण को और मन को, बुद्धि को, अहंकार को आत्मा कहना शुरू किया-तब हमारे महात्माओं ने आत्मा के साथ एक परम शब्द जोड़कर परमात्मा बना दिया। परमात्मा आत्मा का ही नाम है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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