गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-9 : अध्याय 12
प्रवचन : 3
यह मारामारी जो है यह उस समय टूट जायगी जब आप सत्य के साक्षात्कार के मार्ग पर चल पड़ें। दुनिया में चाल यही है कि उनकी मोटर पीछे रह जाय हमारी मोटर आगे बढ़ जाय। उनके जेब में है वह हमारी जेब में आ जावे। यह दुनिया की गति है। यह मारामारी क्यों? असल में सत्य के साथ साक्षात्कार नहीं है। यदि सत्य के साक्षात्कार के लिए प्रयास प्रारम्भ हो जाय-हम उसको आवश्यक समझें और हमारे जीवन की वासना सत्य की ओर मुड़ जाय तो हमारे जीवन में जितने दोष हैं-चोरी, दया, व्यभिचार क्या-अनाचार क्या, दुराचार क्या, भ्रष्टाचार क्या, वे सब दूर हो जायेंगे क्योंकि उस सत्य के ज्ञान की जिज्ञासा होने मात्र से जीवन की दिशा मुड़ जाती है। ‘त्वमव्ययः शाश्वतधर्मगोप्ता सनातनस्त्वं पुरुषो मतो मे’। मैंने जान लिया। मे मम मतः। मेरी मान्यता ऐसी है, मेरा विचार ऐसा है- मेरा ज्ञान ऐसा है, ‘मतः’ में मति रहती है। ‘त्वमव्ययः शाश्वतधर्मगोप्ता सनातनस्त्वं पुरुषो मतो मे’। एक बात पर आप ध्यान दें। आपका ईश्वर से कुछ मतभेद है कि उसके मन से आपका मन मिलता है? ईश्वर की मति से आपकी मति मिलती है कि नहीं मिलती? गुरु के अनुभव से चेले का अनुभव मिलता है कि नहीं मिलता। ईश्वर की नजर से जीव की नजर मिलती है कि नहीं मिलती? आपका सारा दुःख मिट जायगा, अगर आप इस बात पर ध्यान देंगे। आप ज्ञान में ईश्वर से मतभेद रखेंगे तो आपका ज्ञान झूठा है। यदि आप ईश्वर के प्यार से अपना प्यार अलग बना रहे हैं तो आपका प्यार टिकाऊ नहीं होगा। आप ईश्वार को छोड़कर और को पकड़ना चाहते हैं तो कभी पकड़ नहीं सकेंगे। आप अपनी युक्ति पर विचार कीजिये। अपनी बुद्धि पर विचार कीजिये। कभी आप सोचते हैं कि ईश्वार को यह दुनिया कैसी दिखती है। जैसी ईश्वर को यह दुनिया दीखती है यदि वैसी ही आपको दीखने लग जायेगी तब तो आपकी दृष्टि सच्ची होगी। और ईश्वर को जैसी यह दुनिया दीखती है वैसी आप नहीं देख पाते हैं तो आपकी आँख बिलकुल अधूरी है। और अधूरी दुनिया को देख रही है, सच्ची नहीं देख रही है-आओ ईश्वर की आँख में आँख मिलाकर देखें। ईश्वर ने कहा- अर्जुन, मैं देखता हूँ। यह सम्पूर्ण विश्व मेरा स्वरूप है। अर्जुन ने कहा-हाँ महाराज, यह सम्पूर्ण विश्व आपका स्वरूप है। तब अर्जुन भय किस बात का? जब जीवन, जन्म और मृत्यु दोनों ईश्वर का स्वरूप है। जब होना और न होना दोनों ईश्वर का स्वरूप है तब भय किसका? छूटने का शोक किसका? मरने का भय किसका? इस परिवर्तनशील वर्तमान में मोह किसका? भगवान् पर जब दृष्टि जाती है-तब शोक, मोह और भय को अपने जीवन से भगा देती है। देखो, यदि आपका जीवन शोक, मोह, भय से मुक्त न हो तो आप सुखी नहीं होंगे। जो स्वयं सुखी नहीं है, वह दूसरे को सुखी नहीं रख सकता। इसलिए ईश्वर की दष्टि से अपनी दृष्टि मिलना आवश्यक है। वह अविनाशी है, वह शाश्वत धर्म का गोप्ता-रक्षक है, वह सनातन पुरुष है। आप वह जैसा है, उसको वैसा जानिये और जैसा वह देखता है वैसा देखिये। मालिक की नजर से अपनी नजर मिल जाने दीजिये और देखिये शान्ति ही शान्ति है-आनन्द ही आनन्द है! ॐ शान्तिः, शान्तिः, शान्तिः |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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