गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-9 : अध्याय 12
प्रवचन : 2
खेल माने ‘खे लीयते’। ‘ख’ और ली धातु से खेल बनता है। यह संस्कृत का शब्द है। लेकिन जिसका फल आसमान में लीन हो जाय, करने वाले को फल लगे नहीं-पाप-पुण्य लगे नहीं। दिवु धातु जो है, उसका पहला अर्थ है ‘खेल’ क्रीडा; अन्य अर्थ हैं-विजिगीषा, अपने विजय को दिखाना, व्यवहार, मोद, मद, स्वप्न, कान्ति, गति। दिव्य शब्द बड़ा विलक्षण है। भगवान जब अपने जन्म को दिव्य कहते हैं-तब उनका अर्थ यह होता है कि जैसे जीवों का जन्म कर्म के अनुसार होता है वैसे मेरा जन्म कर्म के अनुसार नहीं है। जैसे ब्रह्म में यह समग्र सृष्टि प्रतीत मात्र होती है, वैसा यह प्रतीतिमात्र भी नहीं है। यह तो भगवत-संकल्प ही इसमें मूल हेतु है। ऐसा जन्म है भगवान का जन्म कर्ममूलक नहीं है। ऐसा जन्म है भगवान का जिससे नरक-स्वर्ग की प्राप्ति नहीं होती, जिसमें मृत्यु नहीं होती, जिसमें जड़ता नहीं होती। इस अर्थ में ‘जन्म कर्म च मे दिव्यम्-दिव्य शब्द का प्रयोग किया है। यहाँ ‘दिव्य चक्षु’ का अर्थ है जो अपंचीकृत पंच महाभूतों में-से तेजस् तत्त्व से बनी हुई न हो। हम लोगों की आँख कैसे बनती हैं? जैसे यह रूप आप देखते हैं-लाल रूप है, हरा रूप है- यह कैसे बना? इसमें पाँचों भूतों का मिश्रण है। गुलाब का फूल है, कमल का फूल है। इसमें सुगन्ध पृथ्वी का अंश है। इसमें रसीलापन जल का अंश है। इसमें जो रूप है, चमक है वह तेज का अंश है। और इसमें जो हिलना-डोरना है यह वायु का अंश है। और यह जब चुरमुर-चुरमुर बोलेगा, आवाज करेगा तो वह आकाश का अंश है। परन्तु हमारी इन्द्रियों में ऐसा नहीं है। विषय में तो पाँचों चीजें मिली हुई होती हैं पर इन्द्रियों में एक-एक चीज अलग-अलग होती है। कान में केवल शब्द है, त्वचा में केवल स्पर्श है, आँख में केवल रूप है। इसलिए अपंचीकृत पंचभूतों से बनी हुई होती हैं इन्द्रियाँ। इनमें पाँचों का मिश्रण नहीं होता। ये एक-एक विषय ग्रहण करती है। यह भी आपको प्रसंगवश सुना देते हैं कि हमारी जीभ से जो रस का, स्वाद का, ग्रहण होता है, वह किसी भी मशीन के द्वारा यदि आप ग्रहण करना चाहें तो नहीं ग्रहण कर सकते। जो स्वाद आता है-खट्टा-मीठा-चरपरा वह जीभ से ही आता है। लेबोरेटरी में कोई मशीन लगाकर आप निश्चय कीजिये कि यह चीज कैसी है? वह तो रसना को ही ग्राह्य है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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