गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-9 : अध्याय 12
प्रवचन : 2
आश्चर्यवत् पश्यति कश्चिदेनम् आश्चर्यवद् वदति तथैव चान्यः। आश्चर्यवच्चैनमन्यः श्रृणोति, श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित्।।[1] कोई आश्चर्यमय पुरुष, आश्चर्यमय नेत्रों से इस आश्चर्य-रूप दृश्य को देखता है। उपनिषद् में है- आश्चर्यों वक्ता कुशलोऽस्य लब्धा।[2] जो इस तत्त्व का निरूपण करता है, वह भी आश्चर्य है। उनकी बहू ऐसी है, उनकी बेटी ऐसी, उनका बेटा ऐसा, उनका व्यापार ऐसा, उनकी संपदा ऐसी, उनकी दरिद्रता ऐसी-इसका वर्णन तो सब लोग करते हैं लेकिन जो परमात्मा का वर्णन करे-वह आश्चर्य है। किसको दुनिया में इतनी फुर्सत है कि परमात्मा का वर्णन करने जाय। आश्चर्यो वक्ता कुशलोऽस्य लब्धा। जिसने परमात्मा को प्राप्त कर लिया, उसने समान कुशल और कोई नहीं है। देखने वाला आश्चर्य, देखना आश्चर्य, देखा जाने वाला आश्चर्य, वक्ता आश्चर्य, वाच्य आश्चर्य, श्रोता आश्चर्य-कहाँ से मिले? कहीं सिनेमा हो, कहीं जादू का खेल हो-हजारों लाखों आदमी इकट्ठा हो जाते हैं। परन्तु परमात्मा को सुनने वाले कितने होते हैं? उसको समझना और भी मुश्किल है। मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद् यतति सिद्धये। आओ, आश्चर्य देखो। क्या देखें-क्या आश्चर्य है-
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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