गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-8 : अध्याय 11
प्रवचन : 3
परमात्मा वह नहीं जो सातवें आसमान में रहता है - जिसको मोहम्मद ने भी नहीं देखा, वह निराकार सातवें आसमान में रहता है। वे खुदा - केवल परचे लिख-लिखकर आये। जिस को ईसा ने भी नहीं देखा कि वह वस्तुतः क्या है। जिस निराकार को किसी की भी आँख नहीं देख सकी - हिन्दू हो, मुसलमान हो, शांकर हो, रामानुज हो - जिसको कोई दृश्य नहीं बना सका, उसका सब जगह सब समय हम चिन्तन कैसे करें? ‘केषु केषु च भावेषु चिन्त्योऽसि भगवन्मया’। किन-किन भावों में अधिकरणों में उनको देखें? आप एक बात पर ध्यान दें। एक वस्तु है उसको सत् बोलोंगे परन्तु वही जब बदलती रहेगी - भवनशील होगी तब उसको भाव कहेंगे। भाव माने जो बदलता हुआ विद्यमान; जैसे फिल्म में चित्र बदलता है, वैसे। एक चित्र एक मिनट नहीं रहता वह। इतनी शीघ्रता से बार-बार नये चित्र आते-जाते हैं कि मालूम पड़ता है कि एक है। भाव माने होने वाला। ‘है’ एक होता है और ‘भाव’ अनेक होते हैं। ‘अस्ति’ है, भाव माने होना। जो है वह तो सत्य है और जो होना है, वह परिवर्तनशील है। वह दुनियाँ बदल रही है। किसी के रोके न रुकी न रुकेगी। बड़े-बड़े आचार्य हुए और बड़े-बड़े अवतार हुए। दुनियाँ में क्या रह गया? भगवान राम ने जिस धर्म की स्थापना की थी आज वह पोथियों में लिख रह गया है। और श्रीकृष्ण जिस धर्म-स्थापना के लिए आये थे, वह आज दुनियाँ में ढूँढ़ने से कहाँ मिलता है? इसी को बोलते हैं ‘भाव’ - यह भवनशील है। ‘भाव’ - इस भाव शब्द में प्रत्यय है अथवा अधिकरणें प्रत्यय है। जो चीजें होती हुई दिखती हैं इनमें एक है। आइये उसका चिन्तन करें - हमें अपना दिल बनाना है - वस्तु नहीं बनानी है। दुनियाँ में वस्तु बनाकर कोई पार नहीं पा सका है। ब्रह्मा को भी सन्तोष नहीं होता था। एक सृष्टि बनायी। फिर, अरे गलती हुई; फिर बनाने वाली शरीर को - मान को - ही तोड़ दिया। भागवत् के तीसरे स्कन्ध में है - बहुत मजेदार है। एक चीज बनायी और छोड़ दी - फिर बनाने वाले भाव को ही छोड़ दिया। फिर दूसरा भाव बना लिया। फिर उसमें भी संतोष नहीं; उसको भी छोड़ दिया। यह बहना है - इसमें भाव आता है, जाता है। अब कहो कि हम एक ही भाव को बनाकर रक्खेंगे - तो पत्थर बनाना चाहते हो? भाव बदले, तुम मत बदलो। भाव बदले, परमात्मा न बदले। यह जड़ता जीवन में आने के जरूरत नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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