कविता भाटिया (वार्ता | योगदान) |
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यह भगवान का जो रौद्ररुप है इसका दर्शन करो, चाहे नृसिंह का दर्शन करो, काम शान्त हो जायगा। ‘व्यपेतभीः प्रीतमनाः पुनस्त्वम्-तदेव मे रूपमिदं प्रपश्च व्यतेतभीः। अब भय मत करो-जब डर होता है, भय होता है-सपने में चोर दिख जाता है, भूत दिख जाता है तो भी करने लग जाते हैं। यह अनुकरणमूलक शब्द है। जैसे आप चप्पल को चप्पल बोलते हैं तो चलते समय यह चप-चप बोलती है। यह हवा तेज चलती है, तब इसे झंझा बोलते हैं क्योंकि यह झन-झन-झन बोलती है। अनुकरण-मूलक शब्द होते हैं। इनकी धातु खोजने की जरूरत नहीं होती, प्रत्यय करने की जरूरत नहीं होती। | यह भगवान का जो रौद्ररुप है इसका दर्शन करो, चाहे नृसिंह का दर्शन करो, काम शान्त हो जायगा। ‘व्यपेतभीः प्रीतमनाः पुनस्त्वम्-तदेव मे रूपमिदं प्रपश्च व्यतेतभीः। अब भय मत करो-जब डर होता है, भय होता है-सपने में चोर दिख जाता है, भूत दिख जाता है तो भी करने लग जाते हैं। यह अनुकरणमूलक शब्द है। जैसे आप चप्पल को चप्पल बोलते हैं तो चलते समय यह चप-चप बोलती है। यह हवा तेज चलती है, तब इसे झंझा बोलते हैं क्योंकि यह झन-झन-झन बोलती है। अनुकरण-मूलक शब्द होते हैं। इनकी धातु खोजने की जरूरत नहीं होती, प्रत्यय करने की जरूरत नहीं होती। | ||
− | ‘तदेव मे रूपमिदं प्रपश्च’। ‘प्रपश्च’ का अर्थ यह है कि-पहले तुम हमको व्यक्ति के रूप में देखते थे कि मैं श्रीकृष्ण तुम्हारे रथ का सारथि हूँ। फिर तुमने मेरे-विश्वरूप को देखा। अब जो तुम मेरा रूप देख रहे हो यह साक्षात ब्रह्म है। गौर से देखो-देखने में यह द्विभुज है कि चतुर्भुज है- प्रपश्च। जो ‘पश्य’ क्रियापद के साथ ‘प्र’ उपसर्ग का योग है-उसका अर्थ है ‘प्रकर्षण पश्य’ देखो यह विश्वरूप का भी मूल यही है-व्यक्तित्व का मूल भी यही है। यही जो अव्यक्त ब्रह्मरूप है वही विश्वरूप होता है। और वही व्यक्ति होता है। व्यक्ति में विश्वरूप है, विश्वरूप में व्यक्ति है। और दोनों अनादि, अनन्त, अद्वितय ज्ञान में है-बिना ज्ञान के कोई रूप नहीं होता-रूप हो और मालूम न पड़े तो रूप कहाँ है? इसी से सृष्टि का विचार होता | + | ‘तदेव मे रूपमिदं प्रपश्च’। ‘प्रपश्च’ का अर्थ यह है कि-पहले तुम हमको व्यक्ति के रूप में देखते थे कि मैं श्रीकृष्ण तुम्हारे रथ का सारथि हूँ। फिर तुमने मेरे-विश्वरूप को देखा। अब जो तुम मेरा रूप देख रहे हो यह साक्षात ब्रह्म है। गौर से देखो-देखने में यह द्विभुज है कि चतुर्भुज है- प्रपश्च। जो ‘पश्य’ क्रियापद के साथ ‘प्र’ उपसर्ग का योग है-उसका अर्थ है ‘प्रकर्षण पश्य’ देखो यह विश्वरूप का भी मूल यही है-व्यक्तित्व का मूल भी यही है। यही जो अव्यक्त ब्रह्मरूप है वही विश्वरूप होता है। और वही व्यक्ति होता है। व्यक्ति में विश्वरूप है, विश्वरूप में व्यक्ति है। और दोनों अनादि, अनन्त, अद्वितय ज्ञान में है-बिना ज्ञान के कोई रूप नहीं होता-रूप हो और मालूम न पड़े तो रूप कहाँ है? इसी से सृष्टि का विचार होता है। |
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01:20, 24 मार्च 2018 के समय का अवतरण
गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-9 : अध्याय 12
प्रवचन : 9
अपना विमूढ़ भाव बता रहे हो हमको! यही मालूम पड़ता कि क्या उत्तर क्या पूर्व, क्या दक्षिण-यह भी असल में भगवान के विश्वरूप में है। तो विमूढ़ भाव का अर्थ है दिड्मूढ़ होना और व्यथा का अर्थ है कष्ट अनुभव करना, संकट अनुभव करना। क्योंकि अपना जो माना हुआ है वह सब छूट जाता है। जब सर्वको परमेश्वर के रूप में देखने लगते हैं तो अपनी बनायी हुई दुनिया अपनी नहीं रहती, भगवान की हो जाती है। और भगवान की होने में भी लोगों को तकलीफ होती है। भगवान की दी हुई चीज अगर फिर भगवान की हो जाय-तो गाली देने लगते हैं तुमने छीन क्यों लिया? ‘तेरी तुझको सौंपते क्या लागत है मोर’- तुम्हारी चीज है तुमने दिया, तुमने लिया-इसमें मेरा क्या लगता है? यह भगवान का जो पूर्णरूप है, इसमें जिसकी अघोर वृत्ति हो जाती है, वह महात्मा हो जाता है। आदमी को भय क्यों लगता है? दूसरे के मरने से नहीं लगता है। अपना सम्बन्ध टूटने से लगता है। अपनी बनायी हुई चीज छूटने से लगता है। हम कभी काशी में मणिकर्णिका घाट पर जाकर बैठते थे। कितने मुर्दे आते थे, जलते थे, जलाये जाते थे। लेकिन जब वहाँ बैठे-बैठे देखे थे कि हमारे कोई रिश्तेदार आये हैं, कोई सम्बन्धी आये हैं-जान-पहचान के आये हैं तो दुःख हो जाता। सम्बन्ध से दुःख होता है, मृत्यु से दुःख नहीं होता। यह भगवान का जो घोर रूप है इसका कोई ध्यान करे तो उसका लाभ तुरन्त होगा। उसके मन की कामवासना शान्त हो जायगी। यह भगवान का जो रौद्ररुप है इसका दर्शन करो, चाहे नृसिंह का दर्शन करो, काम शान्त हो जायगा। ‘व्यपेतभीः प्रीतमनाः पुनस्त्वम्-तदेव मे रूपमिदं प्रपश्च व्यतेतभीः। अब भय मत करो-जब डर होता है, भय होता है-सपने में चोर दिख जाता है, भूत दिख जाता है तो भी करने लग जाते हैं। यह अनुकरणमूलक शब्द है। जैसे आप चप्पल को चप्पल बोलते हैं तो चलते समय यह चप-चप बोलती है। यह हवा तेज चलती है, तब इसे झंझा बोलते हैं क्योंकि यह झन-झन-झन बोलती है। अनुकरण-मूलक शब्द होते हैं। इनकी धातु खोजने की जरूरत नहीं होती, प्रत्यय करने की जरूरत नहीं होती। ‘तदेव मे रूपमिदं प्रपश्च’। ‘प्रपश्च’ का अर्थ यह है कि-पहले तुम हमको व्यक्ति के रूप में देखते थे कि मैं श्रीकृष्ण तुम्हारे रथ का सारथि हूँ। फिर तुमने मेरे-विश्वरूप को देखा। अब जो तुम मेरा रूप देख रहे हो यह साक्षात ब्रह्म है। गौर से देखो-देखने में यह द्विभुज है कि चतुर्भुज है- प्रपश्च। जो ‘पश्य’ क्रियापद के साथ ‘प्र’ उपसर्ग का योग है-उसका अर्थ है ‘प्रकर्षण पश्य’ देखो यह विश्वरूप का भी मूल यही है-व्यक्तित्व का मूल भी यही है। यही जो अव्यक्त ब्रह्मरूप है वही विश्वरूप होता है। और वही व्यक्ति होता है। व्यक्ति में विश्वरूप है, विश्वरूप में व्यक्ति है। और दोनों अनादि, अनन्त, अद्वितय ज्ञान में है-बिना ज्ञान के कोई रूप नहीं होता-रूप हो और मालूम न पड़े तो रूप कहाँ है? इसी से सृष्टि का विचार होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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