सुबोधनी
अथ दैन्योदयाद्भावितददर्शनं सम्भाव्य तन्निस्तारोपायं प्रार्थयनस्वाभीष्टं मुक्तकण्ठतयाह- यानि यानि प्राग्वर्णितानि तच्चरितामृतानि तान्येव तान्येव मे हृदये प्रवाहरूपेण स्फुरन्तु। कीदृशानि- तच्चरि- तामृतवासितान्तः करणानामेव पेयानि। तथा- ये वा, चार्थे वा, कैशोरचापल्यसमूहास्ते तेऽपि। कीदृशाः- राधाया अवरोधने उन्मुखास्तत्रोद्यताः। किञ्च, याश्च मुखाम्भोरूहे लीलाः काममदोद्रारिस्मितादि- भंग्यस्तास्ताश्च। कीदृश्यः- स्वमाधुर्येण मिश्रीकृता वेणुगीतस्य गतयो याभिः। सदैतद्दर्शनभाग्यहीन- तयैतत्फुर्तिरिपि स्यादित्यर्थः।।106।।
सारंगरंगदा
नन्विदं ते सहजमेव, तद्विशषः प्रार्थ्यता-मित्यत्राह-यानि त्वच्चरितामृतानि श्रीराधया सह निकुञ्जरासलीलादीनि तान्येव तान्येव। न त्वन्यानीत्यर्थः। मे हृदये धारावाहिकया प्रवाहरूपेण वहन्तु। कीदृशानि- धन्यात्मनां रसनालेह्यानि श्रीशुकादिभिरा- स्वादनीयानि। तथा- येवा चार्थे वा शब्दः, ये च शैशवचापलव्यतिकराः कैशोरचाञ्चल्यविस्तारास्ते त एव तथा वहन्तु। कीदृशः- दानपुष्पाहरण- वर्त्मन्यादौ राधाया योऽवरोधस्तत्रोन्मुखाः। सदा तदुत्कण्ठावन्त इत्यर्थः। तथा, या याश्च मुखाम्भोरूहे लीलाः काममदोद्- गारिस्मितादिभंगी- विशेषास्तास्ताश्च तथा वहन्तु। कीदृशः- भाविताः स्वमाधुर्य- मिश्रीकृता उत्पादिता वा वेणुगीतस्य नूतनगतयो याभिस्ताः।।106।।
‘आस्वादबिन्दु’ टीका
श्रील कविराज गोस्वामिपाद कहते हैं- श्रीकृष्ण कह रहे हैं- हे लीलाशुक, तुमने जिस वर की प्रार्थना की, वह तो अति सहज है। मेरे रूपलावण्य आदि के वर्णन में तुम्हारी वाणी माधुर्य के साथ बढ़े; मेरे कैशोर स्वरूप की तुम्हारी चिन्तनशक्ति में वृद्धि हो। यही न ! यह तो तुम्हारा है ही; इसलिए और कोई विशेष वर माँगो। श्रीकृष्ण की बात सुनकर श्रीलीलाशुक बोले- श्रील शुकदेव आदि धन्य आत्माओं की रसना पर आस्वादित तुम्हारा चरितामृत- श्रीराधा के साथ निकुञ्जविलास और रास आदि लीलायें धारावाहिक रूप से मेरे चित्त में प्रवाहित हों। अर्थात् मैं सर्वदा उन सब लीलाओं का स्मरण करूँ, ऐसा सौभाग्य प्रदान करो। यह धारावाहिक अष्टयाम् युगल- निकुञ्जविलास रास आदि लीलायें श्रीमन्महाप्रभु के श्रीचरणाश्रित गौड़ीय वैष्णव साधकों की रागसाधना का भी अंतरंग या मुख अंग है।
|