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- “दूरे स्निग्धपरंपरा विजयतां दूरे सुहृन्मण्डली
- भृत्याः सन्तु विदूरतो व्रजपतेरन्यः प्रसंगः कुतः।
- यत्र श्रीवृषभानुजा कृतरतिः कुञ्जोदरे कामिना
- द्वारस्था प्रियकिंकरी परमहं श्रोष्यामि काञ्चि- ध्वनिम्।।”[1]
जिस स्थान से श्रीकृष्ण के स्नेहरस के आधार माता-पितागण और उनके सुहृद (सखा) गण दूर रहते हैं; उनके भृत्यगण तो अति दूर ही अवस्थान करते हैं; अन्य जन दूर बने रहेंगे- यह कहने की आवश्यकता ही नहीं। उसी रहस्मय स्थान व्रज के निकुञ्जमन्दिर में वृषभानुनन्दिनी श्रीराधा कामी श्रीकृष्ण के साथ केलिविलास में प्रवृत्त हों, तो उनकी प्रिय किंकरी मैं कुञ्जद्वार पर खड़ी होकर उनकी श्रेष्ठ काञ्चि (करधनी) ध्वनि श्रवण करूँ (गी)- यही प्रार्थना है।
श्रीकृष्णा कह रहे हैं- हे लीलाशुक, ऐसी व्रजबालाओं के साथ विलास करने वाला मैं तो अति दुर्लभ हूँ। तुमने स्वयं ने भी[2] तो यह कहा है- “नाद्यापि पश्यति कदापि निदर्शनाय चित्ते तथोपनिषदां सुदृशां सहस्रम” सहस्र सहस्र सुनयना सुन्दरियाँ और उपनिषद समूह तुम्हारी इस माधुर्यमय श्रृंगाररसराज मूर्ति का निर्दर्शनमात्र (सादृश्य) भी चित्त में आज तक नहीं देख पाईं। इस पर श्रीलीलाशुक बोले- सत्य ही वैसे लीलापरायण तुम्हारे दर्शन अति दुर्लभ ही हैं। केवल मेरे लिए ही दुर्लभ नहीं, सौभाग्य, व्यञ्जक कस्तूरी- मकरांकुरशोभित व्रजांगनाओं के साथ तुम्हारी उस लीला के दर्शन त्रिलोकवासियों के लिए ही दुर्लभ हैं।
- “राधाकृष्णेर लीला एइ अति गूढ़तर।
- दास्यवात्सल्यादि भावेर ना हय गोचर।।
- सबे एक सखीगणेर इहा अधिकार।
- सखी हैते हय एइ लीलार विस्तार।।
- सखी बिनु एइ लीला पुष्टि नाहि हय।
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