श्रीकृष्णकर्णामृतम् -श्रीमद् अनन्तदास बाबाजी महाराज
श्रीलीलाशुक कह रहे हैं- प्रभो ! जितने भी उत्तम पदार्थ हैं, तुम्हें प्राप्त कर या तुम्हारा आश्रय लेकर ही कृतार्थ होते हैं। उन सब वाक्यों की उत्तमता कैसी है? ‘मधुरिमकिरा’ माधुर्यमय- माधुर्य आदि कवित्वगुणयुक्त वाक्यावली। पहले असद्गुण के अभ्यास से जो कुछ वर्णन किया था, वह संकुचित हुआ पड़ा था, किन्तु अब जो वर्णित हुआ है, वह उदारभावमय, कुण्ठाविवर्जित है। अब तुम्हारे सहज अनन्त गुणों का वर्णन कर मेरी वाक्यावली ने उत्फुल्लता प्राप्त की है। जीवन अति चपल और नश्वर है; यह नश्वर जीवन पहले वृथा बीत है, किन्तु अब तुम्हारे समीप तुम्हारे गुणवर्णन से सफल हो गया। उद्धव जी ने गोपियों को देखकर उनकी महिमा का कीर्तन किया था-
ये नन्दव्रजवासिनी श्रीभगवत्-प्रेयसी गोपबधुएं ही उत्तम देहधारिणी हैं, कारण- इनकी देह ही महाभाव नामक प्रेम की एकमात्र आधार हैं। इनकी देह के प्रति स्त्री आदि दृष्टि रखकर अवज्ञा करना महाअपराधजनक है, कारण- ये व्रजांगनायें जिनसे प्रीति कर रही हैं, वे अखिल-आत्मा अर्थात् निखिल आत्माओं के एकमात्र अंशी या समाश्रय हैं। इनके भाव की महिमा और क्या कहूँगा? मुमुक्षु, मुक्तपुरुषगण और श्रीकृष्ण के नित्य संगी दासभक्त हमलोग भी इस भाव को पाने की आकांक्षा ही किया करते हैं, किन्तु पा नहीं सकते। जो व्यक्ति अनन्त माधुर्यपूर्ण श्रीकृष्ण की कथा को लेकर अरसिक है, उसका शौक्र सावित्र्य और दैक्ष्य त्रिविध ब्राह्मण जन्म (ब्राह्मण से शुक्र से जन्म, उपनयन के कारण, यज्ञदीक्षा से) भी क्या करेगा? और जो व्यक्ति कृष्ण कथा का रसिक है, उसे भी विचित्र ब्राह्मण जनम की क्या आवश्यकता? जब श्रीहरिकथा- रसिकता ही इतनी दुर्लभ है, तब व्रजांगनाओं के महाभाव की रीति-नीति कितनी दुर्लभ है, कौन कहेगा? श्रीलीलाशुक ने भी उसी भाव से कहा- मेरे तुच्छ वाक्य ही सार्थक हुए, सो नहीं; तुम्हें पाकर इन गुणराग आदि से पूर्ण गोपवनिताओं का भी जन्म सफल हुआ है। यदि कहा जाय कि गोपियों में जिन्होंने अपने-अपने पति को चित्त अर्पित किए हैं, क्या उनका जन्म सफल है? यह नहीं कहा जाएगा, कारण- पहले कतिपय गोपियों ने रास के आरम्भ में तुम्हें न पाकर देह त्याग का निश्चय किया था और उन्होंने गुणमय देहों का त्यागकर चिदानन्दमय देहों से रास प्राप्त किया था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भा. 10/47/58
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