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- वाचा सूचितशर्वरीरतिकलाप्रागल्भ्यया राधिकां,
- व्रीडाकुञ्चितलोचनां विरचयन्नग्रे सखीनामसौ।
- तद्वक्षोरूहचित्रकेलिमकरीपाण्डित्य पारंगतः,
- कैशोरं सफलीकरोत कलयन् कुञ्जे विहारं हरिः।।इति।।
तस्य नृत्यादिचापल्यं दृष्ट्वाह- चापलधुरा चञ्चलातिशयश्च तथा। ननु शम्पामनः पवनादौ सापि पूर्णा, नेत्याह- मधुरा। एकने वपुषासंख्यांगनापार्श्वे स्थित्यादिनातिमनोज्ञा। तथाहि रसामृतसिन्धौ[1]-
- अघहर कुरु युग्मीभूय नृत्यं मयैव
- त्वमिति निखिलगोपीप्रार्थनापूर्तिकामः।
- अतनुत गतिलीलघवोर्मिं तथासौ
- तदृशुरधिकमेतास्तं यथा स्वस्वपार्श्वे।।
इति पूर्वं तादृशत्वाभावाच्चपलमपि। त्वयि रम्यास्पदे प्राप्ते मद्वाग्गुम्फा न केवलं सफलाः, किन्तु कैशोरलौल्यगोपांगना अपि।।101।।
‘आस्वादबिन्दु’ टीका
श्रील कविराज गोस्वामिपाद कहते हैं- श्रीलीलाशुक ने श्रीकृष्ण से कहा है- इससे पूर्व मैंने तुम्हारे रूप, लीला आदि का कितना ही वर्णन किया है, किन्तु अब आकर मेरा वह कवित्व आदि सफल हुआ। तभी वे सहर्ष बोले- हे कृष्ण ! मेरी वाक्यावली का जो गुम्फन (रचना) है, वह तुम्हारा आश्रय लेकर सफल हो गया। किसी – किसी ग्रंथ में ‘याते’ के स्थान पर ‘जाते’ पाठ है। उसका अर्थ होगा- मेरे जन्म की सफलता जन्मी। कविगण काव्यरचना के लिए वागअधिष्ठात्री देवी श्रीसरस्वती की आरादना करते हैं; वे कण्ठ में आविर्भूत हों और कवि यदि श्रीहरि का गुणकीर्तन करें, तभी वे स्वयं को सभी प्रकार से धन्य समझती हैं। यदि कवि प्राकृत विषय का वर्णन करते हैं, तो देवी के ब्रह्मलोक से आने का श्रम भी सार्थक नहीं होता। वे उस कवि के कण्ठ में आविभूर्त होने के लिए अत्यंत अनुशोचना करती हैं।
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