श्रीकृष्णकर्णामृतम् -श्रीमद् अनन्तदास बाबाजी महाराज
श्रील भट्ट गोस्वामिपाद कहते हैं- अब श्रीलीलाशुक ने श्रीकृष्ण के परम महानन्दरस- साम्राज्य के आविर्भाव की स्फूर्ति से समुल्लसित होकर यह श्लोक पढ़ा रहे हैं। हे कृष्ण ! तुम्हारा शीतल परम आल्हादक मृदुहास्य जययुक्त हो। वह मन्दहास्य कैसा है? अखण्ड अर्थात् जिसका कोई खण्डन नहीं- ऐसे निर्वाणरस या परमानन्दरसमूह के प्रवाह से अशेष रसान्तरसमूह विखण्डित हुआ है। इस परिणाम का उत्स है तुम्हारा हास्यमाधुर्य ! और कैसा है वह मन्दास्य? जिससे सुधासिन्धु या प्रेमामृतसिन्धु अयन्त्रित अनर्गल रूप से उद्वान्त हा है (उगला गया है) या उत्कृष्टरूप से उद्गीर्ण हुआ है ! कमल हो चाहे चंद्रमा, केवल तुम्हारा स्मित मात्र महादुरन्त संताप को शान्त करने वाला है। श्रील चैतन्यदास कहते हैं- श्रीलीलाशुक की बात सुनकर श्रीकृष्ण की श्रीमुख पर मृदुहास्य की रेखा फूट उठी। उसे देखकर लीलाशुक बोले- मैंने जो कहा है, उसका प्रमाण तुम्हारा यह श्रीमुख ही है। तम्हारा मृदुहास्य जययुक्त हो रहा है, अर्थात् मेरे वाक्य का अनुमोदन कर सर्वोत्कर्ष पर विराज रहा है। इस श्लोक में उसी हास्यामाधुरी का वर्णन कर रहे हैं। अखण्डित या पूर्ण निर्वाणरस अर्थात् आनन्दरूप अंगीरस या श्रृंगाररस- उसके प्रवाह से या गर्व – हर्ष आदि द्वारा करुण आदि अशेष रससमूह को विखण्डित कर या भेद कर आत्मसात् किया है, ऐसी है यह हास्यामाधुरी ! अतएव इससे स्वतंत्र रूप से आनन्दसिन्धु आविष्कृत हुआ है, और यह हास्य भी हुआ है अति शीतल।।99।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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