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सारंगरंगदा
किञ्च तव स्मितानि जयन्ति सर्वोपमानानि विजित्य सर्वोत्कर्षेण वर्तन्ते। कीदृशानि- अखण्डनिर्वाणरसप्रवाहैः सर्वतः प्रसरद्भिः पूर्णानन्दरसपूरैर्विखण्डिता- न्याप्लाव्य न्यक्कृतान्यशेषाणि रसान्तराणि यैः। तथा, अयन्त्रितेनायन्त्रणेन स्वभावेनेत्यर्थः। उद्वान्ताः सुधावर्णा यैः। तथा, शीतान्यतिशीतलानि। शैत्यमाधुर्यानन्दरसपराकाष्ठारूपाणीत्यर्थः।।99।।
‘आस्वादबिन्दु’ टीका
श्रील कविराज गोस्वामिपाद कहते हैं- श्रीलीलाशुक कह रहे हैं- हे कृष्ण ! तुम्हारा स्निग्ध मृदुहास्य जययुक्त हो। यह सभी प्रकार के उपमानों को पराभूत कर सर्वोत्कर्ष के साथ विराज रहा है। पिछले श्लोक में श्रीकृष्ण ने कहा है- प्राचीन कवियों ने मेरे मुख के हास्य आदि की चंद्र-पद्म आदि के साथ उपमा देकर वर्णन किया है, तुम ऐसा क्यों नहीं कर रहे? तभी श्रीलीलाशुक ने श्रीकृष्ण के हास्य की निरुपम शोभा का उल्लेख किया है। तुम्हारा हास्य कैसा है, जानते हो? (इसने) अखण्ड परमानन्दरसप्रवाह द्वारा सर्वत्र प्रसरणशील (फैले, विस्तारित) पूर्णानन्दरसरूप में अशेष रसों को विखण्डित या पराभूत कर तिरस्कृत किया है। और जो अयन्त्रित है, अर्थात् स्वभावतः अमृतसिन्धु वमन किया करता है। फिर जो परम सुशीतल है-
शैत्य, माधुर्य, आनन्दरस की पराकाष्ठा स्वरूप है। श्रीमद्रूप गोस्वामिपाद ने लिखा है-
- “प्रपन्नजनता – तमःक्षपण – शारदेन्दुप्रभा
- व्रजाम्बुजविलोचना – स्मर स्मृद्धि सिद्धौषधिः।
- विडम्बित – सुधाम्बुधि – प्रबलमाधुरी – डम्बरा
- विभर्तु तव माधव ! स्मित डम्बकान्तिर्मुदम्।।”
‘शरणागतों के हृदय के अंधकार को नष्ट करने वाली, व्रज की कमलनयनाओं के अनंग रस को बढ़ाने वाली, सुधासिन्धु के माधुर्य का तिरस्कार करने वाली तुम्हारी स्मितचंद्र- कान्ति मुझे असीम आनन्द प्रदान करे।’ केवल हास्य ही नहीं, उसके साथ अन्य अंगों के माधुर्य के भी दर्शन होते हैं।
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