श्रीकृष्णकर्णामृतम् -श्रीमद् अनन्तदास बाबाजी महाराज
तब श्रीलीलाशुक बोले- कवियों का लक्ष्य काव्य-सौन्दर्य ही रहा है। ‘मुख’ न कहकर ‘मुखचंद्र’ या ‘मुखकमल’ कहने से वर्णन सुन्दर और श्रुतिमधुर होता है, तभी उन्होंने ऐसा कहा है। यदि वे लोग तुम्हारे मुख की ओर सावधानी से देखते, तो वे निश्चय ही तुम्हारे मुख की तुलना चंद्र कमल आदि से न करते। तुलना तो दूर, मुझे लगता है चंद्र को कपूरबाती बनाकर उससे तुम्हारे श्रीमुख की आरति कर जली कपूरबत्ती की तरह दूर निक्षेप कर देना चाहिए- वह इसी के योग्य है। श्रील भट्ट गोस्वामिपाद कहते हैं- इस श्लोक में श्रीलीलाशुक श्रीकृष्ण के आगे उनके मुखेन्दु का अपना मौलिक वर्णन प्रस्तुत कर रहे हैं। हे विभो ! यदि सुनने की इच्छा है, तो प्रणिधान या अवधान (ध्यान, सावधानी) के साथ सुनो। प्राचीन या अद्भुत कवियों ने इस बात पर कटाक्ष नहीं किया- अल्पमात्र दृष्टिपात भी नहीं किया। श्रीकृष्ण बोले- वह क्या? श्रीलीलाशुक – शशि प्रदीप की तरह तुम्हारे वदनचंद्र के निर्मञ्छन (आरति) की परिपाटी का भार निष्कपट भाव से चिरकाल पाने के योग्य है। शशि या कपूर के प्रदीप को छोड़ घृत आदि का प्रदीप उष्ण (गर्म) होता है, अतएव आल्हादन के अयोग्य है, इसलिए उससे तुम्हारा वदन निर्मञ्छन करना उचित नहीं। कर्पूरवर्तिका शीतल और आनन्दायक होती है, इसलिए उसी से तुम्हारे वदन मण्डल का निर्मञ्छन उचित है। श्रीकृष्ण का वदनचंद्र चिद्-अचिद् सभी को परमानन्द – सुधारस- शिशिर- चंद्रिका- सिन्धु वर्षण से आप्लावित किए रहता है (डुबोये रखता है); इसलिए श्रीकृष्ण के वदनचंद्र के रहते अन्य चंद्र की क्या आवश्यकता है? श्रील चैतन्यदास कहते हैं- श्रीलीलाशुक की बात सुनकर श्रीकृष्ण बोले-तो तुम जैसा ठीक समझो मेरे मुखमण्डल की शोभा का वर्णन करो। इस पर श्रीलीलाशुक बोले- यदि सुनना चाहते हो, तो सावधानी से सुनो। श्रीकृष्ण बोले- वह क्या? लीलाशुक ने गर्व से कहा- (मैं ऐसी बात बता रहा हूँ) जिस पर प्राचीन और आधुनिक कवियों ने कटाक्ष नहीं किया। श्रीकृष्ण- ऐसा क्या? लीलाशुक- इस गगनस्थ चंद्र ने निष्कपट भाव से चिरकाल तुम्हारे मुख की आराधना कर शशिप्रदीप या कर्पूर – वर्तिका बनकर तुम्हारे मुखमण्डल निर्मञ्छन के दीपमण्डल में प्रवेश करने का अधिकार पा लिया है- वह उसके योग्य है। आकाश का चंद्र कर्पूरवर्तिका के रूप में तुम्हारे वदन-मण्डल का आरति के पश्चात् दूर फेंक दिए जाने के योग्य है; उपमा के योग्य नहीं।।98।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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