श्रीकृष्णकर्णामृतम् -श्रीमद् अनन्तदास बाबाजी महाराज
श्रील भट्ट गोस्वामिपाद कहते हैं- श्रीलीलाशुक अब इस श्लोक में श्रृंगाररस- सर्वस्वमूर्ति श्रीकृष्ण की साक्षात् की तरह अनुभूत मुखेंदु– शोभा और वेश का वर्णन कर रहे हैं। हे केशव ! तुम्हारे केशों की कैसी अपूर्व शोभा है। तुम्हारे मुखचंद्र की कान्ति अतुलनीय है। पद्म, चंद्रमा आदि की कान्ति का निरूपण किया जा सकता है, किन्तु वदनचंद्र की कान्ति अवर्णनीय है। कान्ति की बात दूर, तुम्हारा वेश की कैसा अपूर्व है! वेश अर्थात् तिलक- रचना आदि की परिपाटी वर्णन करने की शक्ति नहीं। यदि कहो कि कान्ति और वेश वर्णन में तुम अशक्त क्यों हो? इसका उत्तर दिया- यह वाक्य के अगोचर है, अर्थात् अनिर्वचनीय और अनास्वाद्य है। अतएव यह वेश और कान्ति स्वयं ही आस्वादन करो। जब आस्वादन की संभावना ही नहीं, तो आशा से क्या लाभ? तभी कहा- तुम्हारे श्रीचरणों में अञ्जलिबद्ध होकर प्रार्थना करता हूँ- तुम्हारे माधुर्य के आस्वादन में प्रतिबन्धक (बाधक) अज्ञान- आवरण दूर हो। तुम्हें बार-बार अनन्त प्रणाम। इसे छोड़ और उपाय नहीं। अथवा तुम्हारी कान्ति और वेश-माधुरी नेत्रों द्वारा आस्वादित हो- मुझ- जैसे अति दुरन्त आशान्वित जन को ऐसा सौभाग्य प्राप्त होना तुम्हारी कृपा के बिना कभी सम्भव नहीं। श्रील चैतन्यदास गोस्वामीपाद कहते हैं- श्रीलीलाशुक श्रीकृष्ण के श्रीमुख की वैसी कान्ति और वेश देखकर परिहास के साथ श्रीकृष्ण से ही पूछ रहे हैं- हे केशव ! उन्मुक्तकेश तुम्हारे मुखचंद्र की यह कान्ति, ‘कान्ताकुचग्रहण’[1]की तरह राधारानी का केशपाश ग्रहण करने के समय कलह में तुम्हारे से वेश आदि अस्तव्यस्त हो जाने से मुखचंद्र की कैसी अदृष्टपूर्व शोभा हो गई हैं! और उसी एक ही कारण से वेश भी कैसा अदृष्टपूर्व है (जो पहले देखने में नहीं आया) ! यदि कहो कि तुम्हीं अनुभव का वर्णन करो, तो मेस उत्तर है- जो लोग तुम्हारी माधुरी का सुष्ठुभाव (सुचारु रूप) से आस्वादन करते हैं- वे तुम्हारे पार्श्ववर्ती जन (निकटस्थ लोग) भी इसका वर्णन नहीं कर सकते। फिर मेरी तो बात क्या? तुम्हारा त्कालीन वेश भी वैसा हैं। अतएव मैं तो हाथ जोड़कर पुनः पुनः तुम्हें प्रणाम करता हूँ- वर्णन करने की मेरी कोई सामर्थ्य नहीं।।95।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्लोक 91
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