श्रीकृष्णकर्णामृतम् -श्रीमद् अनन्तदास बाबाजी महाराज
श्रीलीलाशुक राधारानी के सखीभाव के उपासक हैं (श्रीराधा की सखी हूँ के भाव के)। श्रीमती की करुणा से उन्होंने श्रीकृष्णमाधुर्य- आस्वादन का यथेष्ट सौभाग्य प्राप्त किया है। यह श्रीकृष्णकर्णामृत ग्रंथ ही इस बात का उज्ज्वल साक्ष्य देता है। फिर भी उन्होंने जब श्रीकृष्ण के साक्षात् दर्शन प्राप्त किए, तब वे समझ पाये कि यह उत्ताल माधुर्य का अनन्त सिन्धु वर्णन की विषयवस्तु नहीं। इस माधुर्य का वर्णन कर सके, ऐसी कोई भाषा नहीं- वर्णन करने की किसी की सामर्थ्य भी नहीं। तभी श्रीकृष्ण से कहा- अपनी यह कान्ति अपना वेशमाधुर्य तुम स्वयं ही आस्वादन करो। मैं केवल अञ्जलिबद्ध होकर तुम्हें बार-बार प्रणाम करता हूँ। अथवा उस माधुर्य आस्वादन के लोभी श्रीलीलाशुक अनन्त आर्ति के साथ बोले- मैं अञ्जलि बाँध कर तुम्हें बार-बार प्रणाम करता हूँ। अथवा उस माधुर्य आस्वादन के लोभी श्रीलीलाशुक अनन्त आर्ति के साथ बोले- मैं अञ्जलि बाँध कर तुम्हें बार-बार प्रणाम करता हूँ। कृपाकर दर्शन दिए हैं, तो अपनी कान्ति और वेशमाधुरी मेरे नेत्रों और मन के आस्वादन के विषयीभूत करो। (मेरा मन और मेरे नेत्र इस माधुरी का आस्वादन कर सकें, यह कृपा करो)- मेरी स्वयं की कोई शक्ति नहीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ चै. च.
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