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सुबोधनी
पुनः श्रीमुखस्य तादृशकान्तिवेषौ च दृष्ट्वा सनर्म पृच्छति- हे केशव, उन्मुक्तकेश, त्वन्मुखेन्दोरियं कान्तिः ‘कान्ताकुचग्रहण’[1] इत्याद्युक्ता का दृष्टपूर्वा। तदुपलक्षितोऽयं वेषो वा कोऽदृष्टपूर्वः। अतस्त्वां पृच्छामीत्यर्थः। त्वमेवानुभूय कथयेति चेत् सा कपीयं स्वादतां सुष्ठु आ सम्यगदताम्। एतदास्वादकत्वात् पार्श्ववर्जितजनानामपि वाचामभूमिरविषयम्। मम तु का वार्तेत्यर्थः। सोऽयं वेषोऽपि तथा। अतस्ते भूयो ममाञ्जलिरेवास्तु। पुनः ससंभ्रमम्- भूयशस्त्वां नमाम्येव। केवलं न किञ्चद्वक्तुं शक्त इत्यर्थः।।95।।
सारंगरंगदा
पुनस्तादृश श्रीमुखकान्ति वेशसौष्ठवञ्च दृष्ट्वा तद्वर्णयितुमुद्यतस्तदशक्त्या सचमतकर – संशयं तं पृच्छति- हे केशव ! स्निग्धकुञ्चित- केशरचितचूड़, इयं त्वन्मुखेन्दोः कान्तिः का, अयं वेशश्च कः। ननु पूर्व त्वयैव वर्णिताविमौ, तत्राह- इयमयञ्च काप्यानिर्वाच्या वाचामभूमिः। नेमौ तद्भोचरावित्यर्थः। यद्वा, इयं काप्यनिर्वाच्या, अयञ्च वाचामभूमिः। ननु वर्णने शक्तिर्न चेतर्हि चक्षुर्मनोभ्या- मास्वादयेति तथा चिकीर्षस्तदशक्त्या सनिश्चयमाहसेति। सा ‘नाद्यापि’[2] इत्यादिरीत्यास्मद् दृशैर्द्रष्टुमशक्या गोपीभिरेवास्वाद्येयम्। अयञ्च स तादृशः। स्वयमेवास्वादयतामेव नैतद्वर्णनास्वादनाशया प्रयोजनम्। अतस्ते तुभ्यमञ्जलिरस्तु। भूयो भूयो भूयशस्त्वां नमामि। किम्वा, तल्लुब्धः सकातर्यमाह- तुभ्यमञ्जलिरस्तु, मुहसत्त्वां नमामि, इमौ स्वादतां मह्यमिति शेषः। अंतर्णिजर्थो ज्ञेयः। यथेमौ भयास्वाद्यौ भवतस्तथा कुर्वित्यर्थः।।95।।
‘आस्वादबिन्दु’ टीका
श्रील कविराज गोस्वामिपाद कहते हैं- श्रीलीलाशुक पुनः श्रीकृष्ण की श्रीमुखकान्ति और वेशसौष्ठव दर्शन कर उसका वर्णन करने को उद्यत हुए, पर वाक्यों में उसे व्यक्त करने में असमर्थ हो गए, चौंक गये। तभी संशय के साथ श्रीकृष्ण से ही पूछ रहे हैं। हे केशव ! तुम्हारे स्निग्ध कुञ्चित केशों के चूड़े से सुशोभित तुम्हारे इस मुखचंद्र की कैसी अपूर्वकान्ति है? और वेश की बी कैसी अपूर्व परिपाटी है !! सब वाक्य के अगोचर। श्रीकृष्ण कहते हैं- तुमने तो पहले ही इस कान्ति और वेश का माधुर्य वर्णन किया है! इसके उत्तर में श्रीलीलाशुक बोले- पर तुम्हारा यह वेश, यह कान्ति इस समय मेरे लिए अनिर्वचनीय है। वाक्यों में व्यक्त करना संभव नहीं।
श्रीकृष्ण कहते हैं- यदि वर्णन करने में असमर्थ हो, तो चक्षु और मन से आस्वादन करो। यह सुनकर श्री लीलाशुक कहते हैं- मैंने वह चेष्टा भी की है, समर्थ नहीं हो पाता। तभी निश्चय किया है- अपनी इस कान्ति और वेश का माधुर्य तुम्हीं आस्वादन करो। श्रीलीलाशुक की अनुभवमयी वाणी यथार्थ (सत्य) ही है। कृष्णमाधुर्य का ऐसा प्रभाव है, ऐसी सामर्थ्य है कि यह स्वयं श्रीकृष्ण को भी आस्वादन के लिए प्रलुब्ध कर डालता है।
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