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सारंगरंगदा
तादृशानन्ततन्माधुर्यविशेषमनुभूय साश्चर्यमाह- अस्य विभोर्वपुर्मधुरं मधुरम्, अतिसुमधुरमित्यर्थः। पुनः श्रीमुखमालोक्य सशिरश्चालनमाह- वदनन्तु मधुरं मधुरम्। अतितरां सुमधुरमित्यर्थः। तत्र स्मितमनुभूय सशीत्कारं तन्निर्देशक- तर्जनीचालनपूर्वकमाह- एतन्मृदुस्मितन्तु मधुरं मधुरं मधुरम्। अतितमां सुमधुरमित्यर्थः। कीदृशम्- मधुगन्धि मधुसौरभयुक्तम्। मुखाब्जस्य मकरन्द-रूपत्वात् – सर्वमादकमित्यर्थः। सुरते कृतमधुपान-त्वत्तदीषद्गन्धि वा।।92।।
‘आस्वादबिन्दु’ टीका
श्रील कविराज गोस्वामिपाद कहते हैं- श्रीलीलाशुक के सामने सहसा श्रीकृष्ण का अनन्त माधुर्यसिन्धु समुच्छवसित हो उठा ! उद्वेल (उछलते) माधुर्यसिन्धु में उनका चित्त-मन मग्न हो गया। माधुर्यविशेष के अनुभव से वे आश्चर्य-जनकरूप से हतवाक् हो गए। सोचने लगे, किस भाषा से इस माधुर्यसिन्धु का बिन्दु (मात्र) प्रकट किया जा सकता है? जिस माधुर्य की अनुभूति उनके मन में है, उसका बिन्दु भी व्यक्त कर सके- ऐसी भाषा नहीं खोज पाये। तब इस श्लोक में ‘मधुर मधुर’ कहते रह गये।
इन विभु अर्थात् अति व्यापक माधुर्यमय श्रीकृष्ण की देह मधुर मधुर अर्थात् अति सुमधुर है। फिर समस्त माधुर्य के निलय श्रीमुख की ओर देखकर अति आश्चर्य से सिर हिलाकर बोले- यह वदन मधुर मधुर अतितर सुमधुर है। फिर उस वदन पर विश्वविमोहक हास्यमाधुरी देखकर सीत्कार कर उठे और उस हास्य की ओर संकेत कर अंगुली हिलाकर बोले- यह मृदुहास्य भी मधुर मधुर मधुर अतितम सुमधुर है। कैसी हँसी? जिनका मधुगन्धयुक्त मुखकमल है, उस मुखकमल का मकरन्द- स्वरूप सर्वमादक है यह हँसी। विशेष रूप से उन्मादक है व्रजसुन्दरियों के लिए। पूर्वराग की अवस्था में व्रजदेवयों की उक्ति प्रस्तुत करते हैं श्रीचण्डीदास-
- “देखिनु से श्याम, जिनि कोटि काम,
- वदन जितल शशी।
- भाङ् धनु ठाम, नयनेर वाण,
- हासि खसे सुधाराशि।।
- सइ, एमन सुन्दर कान।।
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