श्रीकृष्णकर्णामृतम् -श्रीमद् अनन्तदास बाबाजी महाराज
फिर अधभूषिता अर्थात् कुंकुम कस्तूरी इत्यादि द्वारा अधिकरूप से भूषिता श्री लक्ष्मी के वक्षस्थल के भूषणस्वरूप हैं, अर्थात् श्रीकृष्ण जब श्रीविष्णु आदि स्वरूपों में अवस्थान करते हैं, तब जलधिदुहिता (समुद्र की पुत्री) लक्ष्मी आदि प्रेयसियाँ उनका पादसम्वाहन करती हैं (पैर दबाती हैं), उसी समय उनके श्रीचरणस्पर्श से लक्ष्मियों के कुचकुम्भ भूषित होते हैं। इसलिए श्रीकृष्ण को समस्त लक्ष्मियों के कण्ठस्थित हार की नायकमणि के समान नीलमणि कहा गया है, यह आश्चर्य है। अथवा ये ईश्वर श्रीकृष्ण ही प्रकाशभेद से अखिल भुवनों में और वैकुण्ठ में श्रीनारायण आदि स्वरूपों में अवस्थान करते हैं- इसीलिए वे उन-उन स्वरूपों में लक्ष्मियों के कुचकुम्भ भूषित करते हैं, इस दृष्टि से ये ही वैकुण्ठ के भूषण हैं। अतएव श्रीकृष्ण ही प्रकाशभेद से उन– उन स्वरूपों की प्रेयसी लक्ष्मियों के कुचकुम्भों के भूषण स्वरूप हैं? यह बात मन में आई तो कुछ देर सोचकर बोले- नहीं, व्रजगोपियों का विषय प्रकाश भेद नहीं; ये एक ही वपु से सभी व्रजगोपियों के हार की नायकमणि के रूप में विराजते हैं। यह अति आश्चर्य ही है; मैं इन्हीं की वन्दना करता हूँ। इस विषय में और सोचने की आवश्यकता नहीं। अथवा नागपत्नियों के स्तव में प्रसिद्ध हैं- “यद्वञ्छया श्रीर्ललनाचरत्तपो विहायकामान् सुचिरं धृतव्रता”[1]- ‘हे देव ! आपके श्रीचरणों की रेणु-कणिका पाने की वासना का परित्याग कर व्रत रखकर दुश्चर तपस्या की थी।’ फिर उद्धव जी ने व्रजदेवियों के स्तुतिप्रसंग में कहा है-
‘रासोत्सव में भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी भुजलताएँ व्रजसुन्दरियों के कण्ठों में रखी, इस प्रकार मनोरथ पूरा होने से उन सबने श्रीकृष्ण का जो प्रसाद प्राप्त किया है, वह प्रसाद लक्ष्मी जी ने प्राप्त नहीं किया यद्यपि वे मेरे ही प्रभु श्रीकृष्ण के अंग अर्थात् मूर्तिविशेष श्रीनारायण से संयुक्ता हैं। जिनकी स्वर्णकमल की तरह अंगकांति और सौगन्ध है, उन वैकुण्ठस्थिता भू, लीला आदि शक्तियों ने भी इस प्रकार का आस्वादन प्राप्त नहीं किया। इसलिए अन्य रमणियाँ अति दूर ही निरस्त हैं।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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