श्रीकृष्णकर्णामृतम् -श्रीमद् अनन्तदास बाबाजी महाराज
सुधा को छानकर किसने यह धनीभूत सुधा उड़ेली है? अमृत सार ऐसी चिक्कण देह है श्याम की। अञ्जन से रञ्जित कर किसने (चक्षुरूपी) दो खञ्जन बिठा दिए हैं? और जाने किसने घनीभूत ज्योत्स्नाराशि को स्थिरतर कर और उसे भी निचोड़ कर मुख बनाया है? फिर जवाकुसुम निचोड़ कर दोनों गण्ड तैयार किये हैं। बिम्बफल को जीतकर किसने ओष्ठाधर गठित किए? और इनकी भुजायें हैं हाथी की सूड़ को जीतने वाली। शंख को जीता है कण्ठदेश ने। कण्ठस्वर ने कोकिल को जीता है। हरिद्रा को मिलाकर किसने पीतवर्ण प्रस्तुत किया, क्या उसी से पीताम्बर अनुरञ्जित हुआ है? किसने विस्तृत प्रस्तर को मरकतमणि से मण्डित किया- वक्षस्थल की शोभा देखने में वैसी ही है। और जाने किसने कानड़ पुष्प को सुषमामण्डित किया है- वैसी है तन की आभा या लावण्य। और किसी ने आदलि अर्थात् कलसी के निचले आधे भाग के ऊपर कदलीवृक्ष को उल्टा रोप दिया- ऐसी है ऊरुयुगल (जंघाओं) की शोभा। पैरों की अंगुलियों के ऊपर जाने किसने दर्पण रख दिया है। चण्डीदास युग युग से इस रूपमाधुरी के दर्शन कर रहे हैं। क्षणभर नीरव रहकर श्रीलीलाशुक ने विस्मय के साथ कहा- यह महः या ज्योति कैशोर विग्रह है। शारदीय सरोवर में उत्तम रूप से उगे कमल की जो क्रमिक विलास परिपाटी है, उसके शिक्षागुरु हैं इनके हस्तद्वय। शारदीय कमल सौन्दर्य सौरभ्य (गन्ध) सौरस्य (रस) से भरी कान्ति छिटकाता, पवन-हिल्लोलों से आन्दोलित होता है अपनी क्रमिक विलासपरिपाटी में स्वयं विभोर है- इनके करयुगल उसकी उस विलास परंपरा के भी शिक्षागुरु हैं। जैसे पहले[1] कहा गया है- “पल्लवारुण- पाणिपंकजसंगिवेणुरवाकुलम्” जो पल्लवों की तरह अरुणवर्ण करकमलों में वेणुधारण कर अपने वेणुरव में स्वयं ही आकुल हैं। फिर इनके चरणों की शोभा ने कल्पतरु के प्रथम पल्लव के अरुणिमा (ललाई) आदि गुणों के सौन्दर्य का लंघन या अतिक्रम किया है। पहले[2] में कहा है- “फुल्लपाटलपाटलीपरिवादि-पादसरोरुहम्” जिनके चरणकमलों की अरुणिमा की शोभा से प्रफुल्लित पाटली पुष्प भी तिरस्कृत होता है। और नेत्र कैसे हैं? त्रिभुवन की समस्त उपमान-योग्य वस्तुओं का गर्व या दुर्मद आदि दलित कर दिया है, अर्थात् कमल आदि की जो शोभा है उसे पराभूत कर दिया है। जैसे पहले[3] कहा है-
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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