श्रीकृष्णकर्णामृतम् -श्रीमद् अनन्तदास बाबाजी महाराज
‘व्रजसुन्दरियों का प्रेमविशेष कोई अनिर्वचनीय माधुरी प्राप्त कर संबद्ध क्रीड़ा का कारण होता है, इसीलिए पंडित लोग इस प्रेमविशेष को ही काम कहकर अभिहित करते हैं। बाहर क्रियासाम्य, किन्तु भीतर आत्मेंद्रिय सुखवासना का अत्यंत अभाव- यह एक अति दुर्ज्ञेय रहस्य है। इन लोगों के प्रेम को ‘काम’ कहकर उस दुर्ज्ञेय रहस्य के प्रति ही इंगित किया गया है।’ “सहजे गोपीर प्रेम नहे प्राकृत काम। काम क्रीड़ा साम्ये ताँर कहि काम नाम।।” (चै.च.) काम शब्द का अर्थ है गोपिका का प्रेम, ‘अवतार’ शब्द का अर्थ प्राकट्य। जिस अवतार में उस प्रेम प्राकट्य का अंकुर फूटता है- वही नवकिशोर व्रजेन्द्रनन्दन ‘कामावतारांकुरम्’ हैं (अथवा, काम शब्द का अर्थ है हाव भाव हेला आदि श्रृंगारज भाव समूह। गोपियों के दर्शन से श्रीकृष्ण में वे सब भाव प्रकट होते हैं, इसलिए वे ‘कामावतारांकुरम्’ हैं- भट्ट गोस्वामी)। श्रीकृष्ण के सभी प्रकार के माधुर्यों का अनुभव प्राप्त कर बोले- ‘मधुरिमस्वाराज्यम्’- श्रीकृष्ण माधुर्य के स्वराज्य हैं। श्रीकृष्ण साक्षात् माधुर्य की ही मूर्ति हैं। श्रीलीलाशुक ने ही कहा है- “माधुर्यमेव नु” (68)- ये क्या साक्षात् माधुर्य हैं? श्रीकृष्ण की सभी दिशाएँ (उनका सभी कुछ) माधुर्यमय हैं। जिस इन्द्रिय से उनकी जो दिक् अनुभव की जाय, सभी मधुमय प्रतिभात होती हैं।
श्रीकृष्णमाधुर्य के स्रोत में बहते श्रीमन्महाप्रभु ने श्रीसनातन गोस्वामिपाद के आगे यह श्लोक पढ़कर इसका माधुर्यमय अर्थ बताया-
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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