श्रीकृष्णकर्णामृतम् -श्रीमद् अनन्तदास बाबाजी महाराज
सारंगरंगदा अथ दूरादत्तकेलिं दर्शयित्वा वेणुनादपूर्वकं स्वसमीपमागच्छन्तं तमालोक्य, “समाधिविघ्नाय”[1] इत्यादि। “विजयतां मम वाङ्मयजीवितम्”[2] इत्यादि साफल्यात् सहर्ष तदागमनं वर्णयति चतुर्भिः- इदं मे जीवित-मात्तकेलि यथा स्यात्तथायाति। कीदृशम्- मञ्जुलवेणुगीत-मनुस्मरत्। नवनव- वेणुगीतं स्मारं स्मारं सृजदित्यर्थः। पादकौमल्यात् सस्नेहसखेदमाह- अहो वत पादाम्बुज पल्लवेनायाति। कीदृशा बालेन कोमलेन। तथा, मृदुक्वणन्नूपुरं तच्च गीतस्मरणमग्न-चित्तत्त्वान्मन्थरञ्च यत्तेन।।78।। ‘आस्वादबिन्दु’ टीका अब श्रीलीलाशुक दूर से श्रीकृष्णकेलि का दर्शन कर रहे हैं। गोपियों के साथ श्रीकृष्ण जो रासक्रीड़ा कर रहे हैं, वही केलिविलास दिखाते वेणुनाद करते हुए वे क्रमशः उनकी ओर ही आ रहे हैं। इसी प्रकार उन्हें देखकर पहले[3] कह चुके हैं, “समाधिविध्नाय कदा मे नु भवेत्” अर्थात् श्रीकृष्ण अपने मुरलीरव से मेरी समाधि में विघ्न कब डालेंगे? फिर[4] कहा है- “विजयतां मम वाङ्मयजीवितम्” मेरी वाणी के जीवनस्वरूप श्रीकृष्ण की जय हो। इस प्रकार की प्रार्थना की सफलता के लिए वे चार श्लोकों में सहर्ष श्रीकृष्ण आगमन वर्णन कर रहे हैं। मेरे जीवनस्वरूप श्रीकृष्ण आत्तकेलि या लीलाविलास के साथ लो, मेरे निकट आ रहे हैं। कैसे ? मञ्जुल वेणुगीत स्मरण करते-करते, अर्थात् लीलाविलास के साथ नव-नव वेणुगीत सृजन करते-करते मन्थर गति से आ रहे हैं। पादपद्मों की कोमलता को याद कर सस्नेह और सखेद बोले- “अहो क्या आश्चर्य। विलासवश मन्थर गति से अति कोमल पादपल्लव सञ्चारण करते आ रहे हैं। फिर मृदु मृदु नूपुरध्वनि के विलास-आवेश में वेणुगीत के अनुस्मरण में मग्नचित्त होने के कारण उनकी गति अति मन्थर हो गई है। (सारंगरंगदा) पदकर्ता महाजन ने मन्थर गति का अन्य कारण भी दिखाया है-
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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