श्रीकृष्णकर्णामृतम् -श्रीमद् अनन्तदास बाबाजी महाराज
‘परार्धकालव्यापी क्रियमाण समाधि के बल पर सिद्ध ब्रह्मसुख की प्राप्ति भी भक्तिरूपी सुखसमुद्र के परमाणु के बराबर भी नहीं हो सकती। यहाँ तक कि कृष्णदास होने के अभिमान में ही ब्रह्मानन्द से कोटि गुऩा अधिक आनन्द अनुभव होता है।’ “कृष्णदास अभिमाने जे आनन्दसिन्धु। कोटि ब्रह्मसुख नहे तार एक बिन्दु।।”[1] उन्हीं श्रीगोपालरूप श्रीकृष्ण के चरणों में बार-बार प्रणाम करता हूँ। श्रीकृष्ण के उसी गोपारूप का वर्णन कर रहे हैं। वे कैसे हैं? “धेनुपालदयितास्तन स्थली धन्य कुंकुम सनाथकान्तये” धेनुपालक गोपगण, उन लोगों की दयिता गोपियाँ, उन लोगों के वक्षस्थलों के धन्यकुंकुम से जिनकी मनोहर कान्ति शोभित है। अथवा ‘धेनुपाल्यश्च धेनुपालाश्च इति’ इस एक शेष समास से समस्त गो-गोप-गोपियों की दयिता, अर्थात् परमप्रेमास्पद श्रीराधा, उनकी स्तनस्थली पर चर्चित जो धन्यकुंकुम है, उससे जिनकी कान्ति प्रभावशील बनी है। फिर ‘वेणुगीतगतिमूलवेधसे’ अर्थात् वेणुनाद की जो गति या गमक आदि प्रकार हैं, उनके मूल या आदि स्रष्टा। वेणुगीत के जो जो स्रष्टा हैं, उन सबके मूल विधाता। वेणुगीत का क्रम उन्हीं से प्रकाशित हुआ है। जिनका वेणुनाद पर आकर्षक मोहन आदि गुणों से संपन्न है।।77।।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ चै. च.
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