श्रीकृष्णकर्णामृतम् -श्रीमद् अनन्तदास बाबाजी महाराज
अंत में श्रीलीलाशुक बोले- ‘व्रजभाग्यसीम’ अर्थात् श्रीकृष्ण केवल व्रजबालाओं के सौभाग्य की सीमा हों, सो नहीं; वे समस्त व्रज के ही सौभाग्य की सीमा हैं। ब्रह्मा जी ने व्रजवासियों का सौभाग्य देखकर बड़े चमत्कारित्व के साथ कहा है-
“पूर्णब्रह्म सनातनः, अवाङ्मनसगोचर परमानन्द” जिन लोगों के मित्र हैं, उन व्रजवासियों के सौभाग्य की सीमा नहीं। सौभाग्य की सीमा नहीं !! “परमानन्दं यत् तदेव तेषां मित्रं स्वाभाविक बन्धुजनोचित प्रेमकर्तृ तादृशप्रेमविषयश्च इत्यर्थः।”[2] साक्षात् परमानन्द जिनका मित्र अर्थात् स्वाभाविक बन्धुजनोचित प्रेमकर्ता और प्रेम का विषय भी है, उनके सौभाग्य की सीमा नहीं। ब्रह्मा जी ने विस्मित होकर श्रीकृष्ण से प्रश्न भी किया है-
‘हे देव ! जिन व्रजवासी गोपरमणियों के वेश का अनुकरण कर पूतना राक्षसी अपने भ्रातृगण के साथ आपका चरणाश्रय पाकर धन्य हुई है; जिन व्रजवासियों की गृह धन मित्र आदि सभी प्रीतिआस्पद (प्रिय) वस्तुएँ आपके लिए हैं, उन व्रजवासियों को आप क्या फल दान करेंगे, अर्थात् उन्हें क्या देने से उनके प्रेम के अनुरूप होगा- मैं निखिल फलों की बात सोचकर भी धारणा में नहीं ला सकता। अतएव उन लोगों के प्रेम में मुझे चिर ऋणी हो रहना होगा। तभी श्रीकृष्ण व्रजवासियों की भी भाग्यसीमा हैं।’ श्रील भट्ट गोस्वामिपाद ने कहा- श्री श्रीलीलाशुक ने सामने स्फूर्ति में प्राप्त श्रीकृष्ण के रूप की उपलब्धि कर यह श्लोक पढ़ा है। यह लो, मेरे सम्मुखस्थ श्रीकृष्ण ‘व्रजभाग्यसीम’ अर्थात् व्रजजनों के भाग्य की सीमा हैं। वे कैसे हैं, यही बताया जा रहा है इस श्लोक में- ‘चापल्यसीम’ वे महादुर्लभ है; इस महादुर्लभ वस्तु को पकड़ना है तो चञ्चल भावना को अभिनिवेश (धैर्य, एकनिष्ठता) द्वारा स्थिर कर उन्हें पाना होगा- ऐसी चपलता के जो सीमास्वरूप हैं। यदि कहें कि विचार के द्वारा चापल्य को दूर करो? ऐसा आश्वासन पाकर उसमें अति वृद्धि होने से बोले- ‘चपलानुभवैकसीम’ मेरे चपल अनुभव की भी जो सीमा हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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