श्रीकृष्णकर्णामृतम् -श्रीमद् अनन्तदास बाबाजी महाराज
‘मुदितमुदितवक्त्रचंद्रबिम्बम्’ अतिशय के अर्थ में ‘मुदित’ दो बार। अर्थात् जिनका मुखचंद्रबिम्ब अतिशय आनन्दित है। प्रश्न सम्भव है- आनन्दसिन्धु या पूर्णानन्द स्वरूप भगवान् का अतिशय आनन्द कैसे सम्भव है? इससे तो पूर्णानन्दरूपता की हानि घटित होती है। प्रकृत पक्ष में भक्त प्रेमानन्द के आस्वादन में पूर्णानन्दस्वरूप भगवान् का आनन्दसिन्धु उच्चलित हो उठता है। सच्चिदानन्दरससिन्धु भगवान् का आन्द दो प्रकार का है (1) स्वरूपानन्द (2) स्वरूपशक्त्यानन्द। आनन्दस्वरूप भगवान् अपने स्वरूप में जो स्वाभाविक आनन्द प्राप्त करते हैं, उसी को स्वरूपानन्द कहा जाता है। अपनी स्वरूपशक्ति के प्रकाश धाम परिकर आदि से जो आनन्द पाते हैं वही स्वरूप शक्त्यानन्द है। यह स्वरूपशक्त्यानन्द है तीन प्रकार का– (1) ऐश्वर्यानन्द (2) मानसानन्द (3) भक्त्यानन्द। भगवान् के धाम परिकर और लीला की अनन्तता के कारण उनकी जो स्वच्छन्दता एवं स्वतंत्रता है, उससे उन्हें जो आनन्द प्राप्त होता है, वही ऐश्वर्यानन्द है। उनकी उदारता, करुणा, भक्तवत्सलता आदि गुणों से चित्त की जो प्रसन्नता या आनन्द होता है, वही उनका मानसानन्द है। फिर भक्तों की भक्तिप्रीति से जो आनन्द है, वही है भक्त्यानन्द। इस भक्त्यानन्द का साम्राज्य सभी आनन्दों के ऊपर प्रतिष्ठित है। भगवान् का अनुभव और उनका श्रीमुखवाक्य ही प्रमाण है। श्रीदुर्वासा ऋषि से कहते हैं-
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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