श्रीकृष्णकर्णामृतम् -श्रीमद् अनन्तदास बाबाजी महाराज
एक साथ समस्त गोपीमण्डली को देखने के लिए जिनके चञ्चल नेत्रों के तारक अति अभिराम अर्थात् परम मनोहर बने हैं। ‘मुदित’ शब्द दो बार आया है, इसका अर्थ है अति मुदित वदनचंद्रबिम्ब, अथवा मुदित का अर्थ होगा आनन्दित मुखचंद्रबिम्ब जिसने सम्यक उदित पूर्णचंद्र की शोभा को जीत लिया है। पूर्ण चंद्र है सकलंक, श्रीकृष्ण का मुखचंद्र अकलंक है। पूर्णचंद्र रात में ही शोभा पाता है, यह मुखचंद्र दिनरात समान रूप से प्रकाशशील है। पूर्णचंद्र एक एक तिथि को क्षयशील है, मुखचंद्र की शोभा निरन्तर वर्धनशील है। पूर्णचंद्र विरहिणी की विरहव्यथा बढ़ाता है, मुखचंद्र का दर्शन कर वह परमानन्दरस में निमज्जित हो जाती है। इसलिए पूर्णचंद्र के साथ श्रीकृष्ण के मुखचंद्र की तुलना नहीं होती। श्रीपाद भट्ट गोस्वामी बोले- सतत वर्धिष्णु (बढ़ रहे) प्रेम द्वारा श्रीकृष्ण स्वरूप देखा जाए, तो उनके क्षण भर के तिरोधान से भी (अदृश्य होने पर) चित्त आकुल हो उठता है, इसलिए श्रीलीलाशुक पहले श्लोक की उक्ति को ही इस श्लोक में दृढ़ कर रहे हैं। अपरोक्ष या प्रत्यक्ष होने के कारण ‘इदम्’ शब्द का प्रयोग। ‘अपने जीवनस्वरूप को पा लिया है, अथवा उससे अवगत हो गया हूँ। इनके थोड़े से अंतर्धान से ही मरण निश्चित है।’ कैसे अवगत हुए हैं? यही बता रहे हैं- ‘तमालनीलम्’ तमाल तरु की तरह जिनका श्यामल अंग है अर्थात् जो श्रृंगाररसस्वरूप हैं। केवल वहीं नहीं, ये ‘तरलविलोचन- तारकाभिरामम्’ चञ्चल नयनों के तारकों की शोभा से सभी को परमानन्द दान करते हैं। और कैसे हैं? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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