श्रीकृष्णकर्णामृतम् -श्रीमद् अनन्तदास बाबाजी महाराज
गोपी- ‘न येन जीवन्ति’ जिसमें जीवन नहीं रहता। इसमें भी गोपियों का उत्कर्ष है, उन्हीं की जय है, कारण- गोपियों के वियोग में श्रीकृष्ण में दुःख का अभाव होने से प्रेम का अभाव व्यक्त होता है। श्रीकृष्ण के प्रश्न से वे ही प्रेमशून्य और अरसिक सिद्ध हुए- इस प्रकार का निष्कर्ष लेकर गोपियाँ परस्पर आँखों से इशारा करती हैं। श्रीकृष्ण पुनः प्रश्न करते हैं- ‘किं दुःखं ? दुःख क्या है ? गोपी- ‘प्रियविरहः प्रिय का विरह। कृष्ण- किं प्रियम् ? प्रिय कौन ? गोपी- अति दुर्लभं यदिह। जो अति दुर्लभ है, वही प्रिय है। श्रीकृष्ण- किं दुर्लभम ? दुर्लभ क्या है? गोपी- प्रकारैरखिलैरपि लभ्यते न हि यत्। जो समस्त प्रकार के साधनों से भी लभ्य नहीं होता, वही दुर्लभ है। श्रीकृष्ण ही गोपियों के प्रिय हैं, वे ही उन लोगों को दुर्लभ हैं। उनके विरह में गोपियों को दुःख होता है। श्रीकृष्ण को गोपियों के विरह में दुःख का अभाव होता है, इसलिए प्रियता और दुर्लभता के बोध का भी अभाव होता है, यही व्यञ्जित हुआ। गोपियों की सभा में उन लोगों के उत्कर्ष के आविष्कार से ही श्रीकृष्ण को परम आनन्द है।’
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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