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सुबोधनी
एतत्- प्रार्थने त्वत्कैशोर- चापल्यमेवास्मान्नि- योजयतीति सपरिहासमाह- तव कैशोर यच्चापल्यं तदुचितचेष्टितं तन्नो नयनमेति प्रबिशति। कथं तच्चापल्यज्ञानम्- पिच्छमय- शिरोभूषणस्य रचनाया योग्यो रत्यावेशगलितः केशपाशो यत्र। अतएव पीनस्तनीभिः स्वसखीसंग समूचकरत्यंक दर्शनानन्दितया पूजनीये सानन्ददर्शन- योग्ये। तदंकमेव लक्षयति- लग्नकज्जलत्वेन कलंकितस्य चंद्रस्य सभ्रमरस्या-रविन्दस्य च विजयो उद्यतम्, न तु विजयि तदनपगमाद्, वक्त्रबिम्बं यत्र।।31।।
सारंगरंगदा
ननु धीराणां मानिनीनां मूर्द्धन्यासि, इदानीं मामवधीर्य किमति दैन्यं कुरुष, अन्यास्त्वा- मुपहसिष्यन्तीति तन्नर्म मनस्युट्टंक्य, “क्वचिदपि स कथां नः” (भा. 10/47/31) इतिवत् स्वचपलंनेत्रे संक्रमय्य प्रलपन्त्या वचोऽनु- वदन्नाह- नोऽमाकं सर्वासामेव नयनं तव शैशवे कैशोरे तत्संबंधिवेश लीलादौचापल्यमेति। “चर्माणि द्वीपिनं हन्ति” (काशिकावृत्ति 1/3/36) इतिवत्। तद्दष्टुमित्यर्थः। अस्माभिः किं कर्तव्यमिति भावः। अथवा, वराकाणां नेत्राणां को वा दोषो यदेतादृशमेतत्। कीदृशे- पिच्छावतंसेन तन्मुकुटेन वा रचना तस्यामुचितः केशपाशो यस्मिन्। तथा, चंद्रारविन्दयोर्विजये- नोद्यतमुद्दृप्तं वक्त्रबिम्बं यस्मिन्। अतः पीनस्तनीनां युवतीनां ताभिर्व्वा नयनपंकजैः पूजनीये तद्योग्ये। अन्योऽपि विजयी बद्धमुकुटः सम्राण् नागरयुवतिभिर्नेत्राब्जैः पुष्प- वृष्ट्या च पूज्यो भवति। अतो दर्शनं देहीति भावः।। स्वान्तर्द्दशायाम्- शैशवे श्रीराधयासह विलासोच्छलित- कैशोरे। पीनस्तनी राधा तन्नेत्र पंकजाभ्यां पूज्यार्हे।। बाह्यार्थः स्पष्टः।।31।।
‘आस्वादबिन्दु’ टीका
श्रील कविराज गोस्वामिपाद कहते हैं- श्रीराधा के उत्कण्ठा-उत्थित दैन्यवचन सुनकर श्रीकृष्ण मानो कह रहे हैं: अच्छा, तुम तो धीर मानिनीगण की मुकुटमणि- उन लोगों की महाराज्ञी हो। तुमने मेरी जाने कितनी अवज्ञा की है, फिर अब दैन्य क्यों दिखा रही हो। तुम्हारा यह भाव देखकर अन्यान्य गोपिकाएँ तुम्हारा उपहास करेंगी। श्रीकृष्ण के ऐसे नर्म वाक्यों की बात सोचकर ‘अपवित’, ‘कवचिदपि स कथा नः किंकरीणां गृणीते’ सुजल्प के इस श्लोकांश में राधारानी से भ्रमर से कहा था- ‘वे क्या कभी इन किंकरियों की बात याद करते हैं? वहाँ उत्कण्ठा चापल्य प्रकट हुआ। उसी प्रकार इस आलोच्य श्लोक में अपने हृदय की चपलता नेत्रों में संक्रमित कर श्रीमती राधारानी ने जो कुछ कहा है, श्रीलीलाशुक ने उसका अनुवाद कर कहा- हे मोहन! तुम्हें यह आशंका करने की आवश्यकता नहीं। तुम्हारी नवकिशोर मूर्ति से हम लोगों का वह दर्प चूर हो गया है। हम सभी के नेत्र तुम्हारी उस किशोर मूर्ति को देखकर चञ्चल हो गए हैं। उस मूर्ति के साक्षात् दर्शन दूर रहे, स्वप्न में भी दर्शन हो जाने पर व्रजबालाओं के लिए उसका अद्भुत आकर्षण है-
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