श्रीकृष्णकर्णामृतम् -श्रीमद् अनन्तदास बाबाजी महाराज
तथापि श्रीकृष्ण के श्रीचरणों का माधुर्य प्रतिक्षण वर्धित होकर नवनवायमान रूप से अनुभूत होता है। बाह्यदशा में अलोच्य श्लोक के श्री शब्द का अर्थ है सर्वसम्पत्ति। श्रीकृष्ण के कृपाकटाकक्ष से ही भक्त को सभी प्रकार की पारामर्थिक सम्पदा प्राप्त हुआ करती है। श्रील भट्ट गोस्वामपाद ने लिखा है- श्रीलीलशुक देखते हैं कि श्रीकृष्ण की नयनशोभा श्रीराधा-विषयक प्रेम की ही परिणित है, इसलिये वे मंद हास्य ईक्षण आदि विविध शोभासमप्ति के परम आश्रय है। श्रील भट्ट गोस्वामपाद ने इस समय श्रीकृष्ण के मधुरतर-लीला-विलोल माधुरी में मग्न होकर अपने हदय में उनके भावगर्भित नेत्रों की क्रीड़ा की स्फुरण परम्परा की प्रार्थना की है (अर्थात वे श्रीकृष्ण की नयना माधुरी पर मुग्ध हैं और प्रार्थना करते हैं। कि उनकी यहा नेत्र भगिमा उनके हदय में स्फूर्त हो)। अपने सड़ियों के अभिप्रय से अथवा स्वयं को ही बहुवचन कर 'न' प्रयोग किया है। हमारे हदय में प्राणनाथ किशोर श्रीकृष्ण सम्यक अपरोक्ष (प्रत्यक्ष) स्फूति-धारा का विषय श्रीलीलाशुक श्रीकृष्ण की नयनाशोभा की विशिष्टता हैं-प्रणयपरिण्ताभ्यां -प्रणय का अर्थ है प्रेम उसके द्वारा परिणाम विशेष प्राप्त। जहाँ-जहाँ प्रेममय की दृष्टि पड़ती है, वहाँ-वहँ चैतन्यवस्तु मात्र ही प्रेमविह्वलता प्राप्त कर एकमात्र श्रीकृष्ण में अनुरक्त हो जाती है। श्रीभरालम्बनाभ्याम श्री अर्थात शोभा से भरे अथवा शोभाविशेष के आलम्बन अर्थात परमशोभा के चरम आश्रयस्थल श्रीकृष्ण के नयनव्दय॥13॥
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ चै.च.
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