श्रीकृष्णकर्णामृतम् -श्रीमद् अनन्तदास बाबाजी महाराज
इन माधुर्यनिष्ठ भक्तों का ऐश्वर्यज्ञान त्रिवेणी में सरस्वती प्रवाह की तरह गौणरूप से रहता है। जैसे पूर्णिमा आदि पर्वयोग में त्रिवेणी में सरस्वती प्रवाह प्रकाशित होता है, वैसे ही विरह में ऐश्वर्यज्ञान प्रकाशित होता है। “माधुर्यनिष्ठानामैश्वर्यज्ञानं त्रिवेण्यां सरस्वती-प्रवाह-वद्गौणतरास्ति विरहे विस्मये विपदि च तस्योदयः नर्वाणि सारस्वतस्यैव प्रवाहस्य” (सिद्धान्तरत्न) ऐश्वर्यज्ञान की स्फूर्ति के समय भी उनके चित्त में सम्भ्रम-संकोच के अभाव के कारण उसे ऐश्वर्यज्ञान नहीं कहा जाता। व्रज के विशुद्ध माधुर्यज्ञान का स्वभाव ही यह है कि श्रीकृष्ण की भगवत्ता में शत-शत प्रमाण अपनी आँखों से देखकर भी उनके चित्त में कभी भी सम्भ्रमसंकोच नहीं आता; संबंधज्ञान में किञ्चित् मात्र भी शिथिलता नहीं आती। इससे तो उल्टा उल्लास ही जगता है। पूतना अघासुर वकासुर वध, गोवर्धन – धारण, कालीयदमन, दावानल भक्षण, रासलीला आदि में श्रीकृष्ण का जो अचिन्त्य ऐश्वर्य प्रकाशित हुआ है, वह सर्वथा मानव बुद्धि के अगोचर है। किन्तु ऐसे ऐश्वर्य ने भी वजवासियों के माधुर्यसिन्धु के अतल तल में विलीन होकर उनके माधुर्यज्ञान को ही पुष्ट किया है। लीलाशुक माधुर्य के ही उपासक हैं, इसीलिए उनके विभु शब्द का लक्ष्य माधुर्यवारिधि श्रीकृष्ण ही हैं- यही श्रील कविराज गोस्वामिपाद की टीका का मर्म है। श्रीलीलाशुक कहते हैं- माधुर्य-चातुर्य आदि सभी सम्पदाओं से पूर्ण विभु का मुखकमल मेरी हृदय सरसी में सदा शोभा पाये। मुरलीनिनाद ही इस कमल का मकरन्द (पराग) है। ‘माधुर्यमूर्ति विभु का वदनकमल इस मकरन्दरस से सतत् भरा है। इस मकरन्दरस का आस्वादन अति अद्भुत है।’ मुरली का कलकूजन त्रिजगत् के मन को आकर्षित करने वाला है। “त्रिजगन्मान-साकर्षि-मुरली-कलकूजितः” (भ.र. सि. 2/1/42) वेणुमाधुरी श्रीकृष्ण का एक असाधारण गुण है। यह वेणुधारी व्रज की ही अनन्य संपदा है। “मधुर मधुर वंशी बाजे एइतो वृन्दावन।” मुरली के रन्ध्र (छिद्र)- रन्ध्र में वेदमंत्र ध्वनित होते हैं। “शब्दब्रह्मयं वेणुं वादयन्तं मुखाम्बुजे”- इसीलिए मुरलीनिनादरूपी मकरन्द अति व्यापक है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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