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सारंगरंगदा
अथ तच्छ्रीमुखाब्जलग्नमनस्तया सलालसमाह-विभोस्तन्माधुर्यचातुर्य सम्पत्पूर्णस्य मुखपंकजं मे मनसि मनःसरसि विजृम्भताम्। कीदृशम्- मुरलीनिनाद एव मकरन्दस्तेन निर्भरं पूर्णम्। तथा, प्रोज्ज्वलेन्द्रनील-मणिमुकुर इवाचरतीति मुकुरायमाणे मृदुनी गण्डमण्डले यस्मिन्। तथा, स्मरमदन भावोद्वारेण च मुकुलायमाने नयनाम्बुजे यस्मिन्। स्फुटपद्योपरि दरविकसितपद्ययुगलं चेतस्यात्तत् सममित्यद्भुतोपमेयम्। किम्वा, श्रीगण्डमुकुर संक्रमितानि तेन मुखपंकजेन सह सख्यं कर्तुमिवागतानि तासां भावोद्गार-मुकुलायमान- नयनाम्बुजानि, श्री राधा-यास्तादृशे नयनाम्बुजे खञ्जरीटस्थानीये वा, यस्मिन्! वाह्यार्थःस्पष्ट एव।। प्रथमे प्रकाशताम् द्वितीय चिरम्, तृतीय विशेषेणेति श्लोकत्रये क्रमेणोत्कण्ठाधिक्यम्। एवमग्रेऽपि ज्ञेयम्।।6।।
‘आस्वादबिन्दु’ टीका
श्रीपाद लीलाशुक का चित्त श्रीकृष्ण के मुखकमल मकरन्द पान में मुग्ध भ्रमर की तरह अतिशय आकृष्ट हुआ। उनकी लालसा में अत्यंत वृद्धि हुई। तभी बोले- विभु का मुखपद्य मेरी हृदय-सरसी में सदा ही विकसित रहे। श्रीलीलाशुक सभीभाव के उपासक हैं; उनके मुख से ऐश्वर्यज्ञान सूचक ‘विभु’ शब्द क्यों? श्रील कविराज गोस्वामिपाद विभु शब्द की व्याख्या में लिखते हैं- “विभोस्तन्माधुर्य चातुर्यसम्पत्- पूर्णस्य वे माधुर्यचातुर्य संपदा से पूर्ण हैं, तभी विभु! प्रधानतः स्वरूप ऐश्वर्य और माधुर्य को लेकर ही भगवान् की भगवत्ता है।” इत्थं सतां ब्रह्मसुखानुभूत्या- (भा. 10/12/11) की टीका में श्रीमज्जीव गोस्वामिपाद ने लिखा है- “भगवांस्तावद-साधारण स्वरूपैश्वर्यमाधुर्य- स्तत्त्ववशेषः। तत्र स्वरूपं परमानन्दम्, ऐश्वर्य-मसमार्घ्द्वानन्त-स्वाभाविक- प्रभुता, माधुर्यम् समोर्द्धतया सर्व मनोहरं स्वाभाविकरूप-गुणलीलादिसौष्ठवम्। तत्तदनुभव-साधनञ्च क्रमेण ज्ञानं ज्ञेयम्, भक्त्याख्या गौरवमिश्राप्रीतिः, शुद्धप्रीतिश्च एतत त्रिविधसाध्य साधनाभावेन मार्याश्रितानां स्फूर्त्याभास एव, केनाप्यंशेन वस्त्वस्पर्शात्…..ततश्च निर्विशेषज्ञानेन स्वरूपानुभवः, गौरवमयज्ञानेन ऐश्वर्यानुभवः, प्रीतिमयज्ञानेन माधुर्यानुभव इति।” अर्थात् किसी असाधारण स्वरूप ऐश्वर्य और माधुर्यमय तत्त्वविशेष का नाम भगवान् है; परमानन्द उनका स्वरूप है, असमोर्ध्व अनन्त स्वाभाविक प्रभुता उनका ऐश्वर्य है, असमोर्ध्व सर्वमनोहर स्वाभाविक रूप गुण लीला की सुचारुता ही उनका माधुर्य है। निर्विशेषज्ञान उनके स्वरूप को अनुभव करने का, गौरव-सम्भ्रम-मिश्रित भक्ति उनके ऐश्वर्य को अनुभव करने का, और व्रजप्रेम ही उनके माधुर्य को अनुभव करने का साधन है। इस त्रिविध साधन के बिना मायाबद्ध मानव की बुद्धि तत्त्ववस्तु भगवान् को किसी भी अंस में स्पर्श नहीं कर सकती। निर्विशेष ज्ञान से भगवान् के स्वरूप की अनुभूति होती है गौरव-सम्भ्रममय ज्ञान से ऐश्वर्य की और शुद्धप्रीतिमय ज्ञान से माधुर्य की अनुभूति होती है- यह जानना होगा। व्रज माधुर्य का ही धाम है। व्रजभक्तों का माधुर्यज्ञान ही स्वाभाविक है।
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