श्रीकृष्णकर्णामृतम् -श्रीमद् अनन्तदास बाबाजी महाराज
‘आस्वादबिन्दु’ टीका
श्रीकृष्ण ने यह कर्णामृत श्रवण कर प्रसन्न हो कर पुनः वर देना चाहा, तो श्रीलीलाशुक हाथ जोड़कर बोले- हे देव ! तुमने कृपा कर साक्षात् दर्शन दिए हैं, मैं परिपूर्ण रूप से कृतार्थ हो गया। और क्या वर चाहूँगा? फिर भी तुम्हारी आज्ञा का अवश्य ही प्रतिपालन करूँगा। यदि तुम पुनः कोई वर देना आवश्यक समझते हो, तो यहीं वर दो कि मेरा रचा यह श्रीकृष्णकर्णामृत शत-शत कल्पों तक तुम्हारे भक्ति रसिकों का चित्त परिप्लुत करता हुआ प्रवाहित हो। प्रेमिक रसिक भक्तों के आस्वादन से ही भक्तकवि की भगवत् रसकाव्य- रचना यथार्थतः सफल होती है। श्रीकृष्ण ने स्वयं ही कहा है कि इस कर्णामृत ने उनके कानों में अमृतधारा उड़ेल कर उन्हें तृप्त- संतुष्ट किया है। सुचंतुर कवीन्द्र श्रीपाद लीलाशुक ने इसी वर की प्रार्थना की कि उनके इस कर्णामृत की रसधारा रसिक भक्तों के मानस में शत-शत कल्पों तक प्रावाहित हो। एक साथ भक्त और भगवान् की सुचिरकाल तक अपूर्व सेवा- इससे अधिक कृतार्थता और क्या हो सकती है? अमर कवि का यह अमर काव्य किस प्रकार भक्तजनों के कर्णमन में अपूर्व नव-नव रसानन्द प्रसारित कर रहा है- इस विषय में इस ग्रंथ के श्रवण कीर्तनकर्ताओं का अनुभव ही ज्वलन्त साक्ष्य (गवाही) है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ चै. च.
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